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________________ ( ४४२ ) 'निश्चित होती है । और इसी से अक्षरातीत पुरुषोत्तम तत्त्व भी अवगति होती है । सामान्य रूप से अक्षर भगवद् विभूति रूप है, क्यों कि वह पुरुषोत्तम भाव को प्राप्त कर लेता है, उसकी स्थिति इसी प्रकार से रहती है इसलिए ज्ञान और भक्ति दोनों ही हेतु इसमें भी हो सकते हैं। इ यदामननात् ३।३।३४॥ ननु संसार निवृत्यानंदाविर्भावयीरविशेषादक्षरे ब्रह्मणि लये पुरुषोत्तमेप्रवे'शात् न्यूनतौक्तो को हेतु ? इत्याकांक्षायामाह-"इयद्ः" इति । परिमाणवचनम्, तस्य श्रु ती कथनादित्यर्थः । अत्रेदं ज्ञेयम् । तैत्तरीयोपनिषत्सु-''सैषाऽनंदस्य 'मीमांसा भवति" इत्युपक्रम्य मानुषमानंदमेकं गणयित्वा तस्मादुत्तरोत्तरं शतगुणमानंदं गंधर्वानारभ्य प्रजापतिपर्यन्तस्योक्त्वोच्यते-"ते ये शतं प्रजापतेरानंदाः -स एकोब्रह्मण आनंदः" इति । एवं सति इयत एतावदक्षरानंदस्य सावधिकत्वेन श्रुतौ कथनादानंदमयरबेन निरवध्यानंदात्मकत्वस्य पुरुषोत्तमे कथनात्त थोक्तिरिति । प्रश्न होता है कि-अक्षर प्राप्ति और पुरुषोत्तम प्राप्ति, दोनों ही स्थितियों ‘में संसार निवृत्ति तो हो ही जाती है उस निवृत्ति में सुख तो है ही फिर अक्षर ब्रह्मलय को पुरुषोत्तमलय से न्यून कहने का क्या कारण है ? इसका उत्तर "इयद्" इत्यादि सूत्र से देते हैं । इसका मुख्य कारण इयत्तां अर्थात् परिमाण है, जो कि श्रुति के कथन से निश्चित होता है। तैत्तरीयोपनिषद् में आनंद संबंधी मीमांसा की गई है, उसमें सर्वप्रथम मानुष आनंद को बतलाकर उसके बाद अन्यान्य आनंदों को सौ गुना बतलाते हुए गंधर्व से लेकर प्रजापति तक आनंद की विशेषता बतलाते हुए कहते हैं कि-"जो सौ प्रजापति के आनंद हैं उतना केवल ब्रह्म का आनंद है ।" इस प्रकार अक्षरानंद की सीमा निर्धारित करते हुए ब्रह्म को सीमा रहित आनंदमय पुरुषोत्तम बतलाया गया है, इसी से अक्षरानंद को न्यून कहा गया है । :१२ अधिकरण : अन्तराभूतग्रामवत् स्वात्मनः ।३।३।३।। अथ ज्ञानमार्गे यथा स्वात्मत्वेन ब्रह्मणो ज्ञान तथा भक्तिमार्गेऽपि, भक्त्यापुरुषोत्तम ज्ञाने स्वात्मत्वेन पुरुषोत्तम ज्ञानं भवति ? न वा, इति विचार्यते ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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