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________________ ( ४३३ ) चिन्तन मात्रस्य तथात्वमुच्यते । "पंचपदोंजपन्" इत्यादि उक्त्वा "ब्रह्म संपयते ब्रह्म संपद्यते'' इति श्रु त्या कीर्तन मात्रस्य तधात्वमुच्यते । तधा च प्रत्येकपक्ष एव सर्वासां श्रु तोनमविरोधः स्यात् । एवं सति “परब्रह्म तद् यो धारयति" इत्यादिषु "सोऽमृतो भवति" इति पदं प्रत्येकं सम्बध्यते इतिज्ञेयम । अथर्व ग गोपालतापनी उपनिषद् में पाठ है कि-"जो कृष्ण नामक परब्रह्म का ध्यान करता है, प्रेम करता है, नाम श्रवण करता है, नाम सुनता है, नाम का उपदेश करता है, तथा इन सबका आचरण करता हैं, वह अमृत होता है अमृत होता है ।" अब इस पर संशय होता है कि -धारणा आदि सब मिल कर अमृत साधक हैं अथवा ये अलग अलग भी अमृत साधक हैं ? उक्त प्रसंग में धारण आदि साधन कलापों का वर्णन कर फल का उल्लेख किया गया है जिससे सभी साधन मुक्ति के साधक ज्ञात होते हैं, इसी प्रकार. श्रवण कीर्तन आदि नवविध भक्ति साधन भी मुक्ति के अलग अलग साधक कहें गये हैं। इस पूर्वपक्ष पर सिद्धान्त बतलाते हुए कहते हैं । “अनियमः" अर्थात् उक्त सारे साधन मुक्ति साधक हों ऐसा कोई नियम नहीं है । अर्थात् सब मिलकर ही मुक्ति साधक हों ऐसा नियम नहीं है । इस पर प्रमाण देते हुए कहते हैं "सर्वासामविरोधः ।" कृष्ण का चित्त से चिन्तन करने से संसार से मुक्ति होती है ''इस श्रुति से तो केवल चिन्तन मात्र से मुक्ति बतलाई गई है। "पंचपदी जपन्" इत्यादि कहकर "ब्रह्म संपद्यते ब्रह्मसंपद्यते' इत्यादि श्र ति से केवल कीर्तन से भी मुक्ति बतलाई गई है। इस प्रकार सभी साधनों से सबंधित श्रतियाँ है, अतः सभी अविरुद्ध है।' "जो इस प्रकार परब्रह्म को धारणा करता है इत्यादि में "वह अमृत होता है" इस पद का सम्बन्ध होगा। ननु यथा दण्डादीनां प्रत्येकं घट हेतुत्वोक्तावपि नैकस्यैव तज्जनकत्वमेवम्त्राप्येकैकस्य चिंतन्मदेस्तथात्वोक्तावपि फलसाधकत्वं समुदितानामेव तेषामिति चेन्मैवम् योऽर्थों यत्प्रमाणेकसमधिगम्यः स तेन प्रमाणेन यथा सिद्धयति तथा मंतव्यः । दण्डादेस्तथात्वं प्रत्यक्षेण गृह्यत इति तत्र तथाऽस्तु, प्रकृतेतु तेषां तथात्वमलौकिक शब्दक समधिगम्यम् । श्रुतिस्तूक्त व । न चोक्त न्यायः श्री तिष्वपि तात्पर्य निर्णायको भवतीति वाच्यम् । अलौकिकेऽर्ये लौकिकस्यासामर्थ्यात् । अन्यथा ब्रह्मत्णा मनसैव प्रजाजनने निषेकादिक
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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