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________________ ( ४३२ ) "होता तो स्वर्ग आदि तीनों को भजनानन्द से तुलना करना असम्भवथा, अनु'भूत वस्तु की तुलना होती है । न्यूनार्थ को जानने वाला हो पूर्णार्थं महान् का वरण कर सकता है । इसी बात का उदाहरण देते हैं- "लोकवत्" । जैसे कि- लोक में स्वाधीन भतृका नायिका सम्भोगावस्था के आनन्द के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं को तुच्छ मान कर, घर धन आदि को भी दिये जाने पर नहीं स्वीकारती वैसे ही भक्त की उक्त बात भी हैं " मुक्ति ददाति " इत्यादि में स्पष्ट रूप से भक्ति की विशेषता बतलाई गई है । अथवा स भगवानेव लक्षणमसाधारणो धमोयस्य स तल्लक्षण उद्भट 'भक्तिभाव: स एवार्थः स्वतन्त्रपुरुषार्थ रूप इत्यग्र े पूर्ववत् । भगवत् प्राकट्यवानेव हि भक्तो भक्तत्वेन ज्ञायते इति तथा । एतेन ज्ञाप्यं हि ज्ञापकाधिक भवति, एवं सति यज्ञापकं परम काष्ठापन्न वस्तु पुरुषोत्तम स्वरूपं सर्वफलरूपं तन्महत्वं कथं वक्तु ं शक्यं इति सूच्यते । उक्त सूत्र की व्याख्या इस प्रकार भी की जा सकती है कि- भगवान् ही असाधारण धर्म है जिनका भक्ति भाव उद्भव ही स्वतन्त्र पुरुषार्थ रूप है, इसके आगे की व्यख्या पूर्ववत् होगी । भक्त, भक्ति के बल से ही जान सकता है कि - भगवान प्रकट होते हैं इस स्थिति में, ज्ञापक से ज्ञाप्य अधिक होता ज्ञापक के लिये जो परम काष्ठापन्न वस्तु पुरुषोत्तम स्वरूप है जो कि समस्त फलरूप है, उनका महत्व कैसे कहा जा सकता है । C. अधिकरण अनियमः सर्वासामविरोधः शब्दानुमानाभ्याम् | ३ | ३|३१|| अथर्वणोपनिषत्सु पठ्यते - "परब्रह्म तद् यो धारयति रसति भजति ध्यायते प्रेमति श्रृणोति श्रावयत्युपादिशत्याचरति सोऽमृतो भवति सोऽमृतो भवति" इति । तत्र धारणादीनां समुदितानां एवामृत साधकत्वमुत प्रत्येकर्माप १ इति भवति संशयः । अत्र धारणादि साधनकलापमुक्त्वा फलमुच्यत् इति समुदितानामेव मुक्तिसाधकत्वमुपलक्षणं चैतच्छ्रवणादि नवविध भक्ती नामप्येमेव तथात्वनिति पूर्वपक्षे सिद्धान्तमाह – “अनियमः इति । समुदितानामेव तेषां फलसाधकत्वमिति नियमो नास्तीत्यर्थः । अत्रोपपतिमाह - "सर्वासामविरोर्घः" इति । " चिन्तयश्चेतसा कृष्णं मुक्तो भवति संसृतेः इति श्रुत्या
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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