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________________ - ( ४२५ ) च 'मत्कामारमणंजारं मत्स्वरूपाविदोऽबलाः ब्रह्म मां परमं प्रापुः संगाच्छत सहस्रशः “इति वाक्यात् ज्ञानमार्गीय भक्तिमार्गीय ज्ञानरहितानामापि भगवत् प्राप्तेः तत्साधनत्व निरूपक श्रुति विरोधः । तथा च क्वचित्ज्ञानं मुक्तिसाधनत्वेनोच्यते, क्वाचिद् भक्तिः, क्वचिन्नोभयमपि इत्येकतर साधन अनिश्चयान् मुक्ति साधने मुमुक्षोः प्रवृत्यसंभवः। "ब्रह्म, सत्य ज्ञान और अनन्त स्वरूप है" जो हृदयस्थ गुहा के परमाकाश में निहित को जानता है । "उसे जानकर यहीं अमृत हो जाता है" "इसे जानने का इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं है" इत्याकिं श्रुतियाँ उक्त रूप ब्रह्म ज्ञान से मोक्ष बतलाती है।" जिसे वह परमात्मा वरण करता है उसे ही परमात्मा की प्राप्ति होती है" इत्यादि आत्मीय रूप से स्वीकारात्मक वरण की बात भक्ति मार्ग की पुष्टि करती है, भक्तिमार्ग में प्रदेश करने से भक्ति द्वारा ही मोक्ष की बात निश्चित होती हैं । "मुझे भक्ति से जानता है" "मुझे तत्व से जानकर ही प्रविष्ट होता है" इत्यादि भगवद् वाक्य, भक्तिमार्ग में भी पुरुषोत्तम ज्ञान से ही मोक्ष बतलाता है। ज्ञानमार्ग में अक्षरज्ञान से मुक्ति बतलाई गई है । "मेरी भक्ति से युक्त मुझ में आसक्त योगियों को बिना ज्ञानवैराग्य के भी प्रायः "मोक्ष प्राप्त हो जाता है" इत्यादि वचन से, भक्तिमार्गीय के लिये, ज्ञान की निरपेक्षता भी ज्ञात होती है । इस प्रकार श्रुति और स्मृति की परस्पर विरुद्धता से किसी एक बात का निर्धारण संभव नहीं है । ऐसा भी नहीं कह सकते कि-दोनों ही जगह ज्ञान की चर्चा है इसलिये ज्ञान से ही मोक्ष होता है, तथा ज्ञान निरपेक्षता, भवित स्तुति के अभिप्राय से कही गई है, इत्यादि । क्योंकि विषय भेद से ज्ञान भेद होता है, अतः कौन सा ज्ञान मोक्ष का साधक हैं, ऐसा निर्णय करना कठिन है । ऐसा भी नहीं; कह सकते कि-श्रौत ज्ञान सामान्य है इसलिये सभी प्रकार का ज्ञान मोक्ष साधक है, क्योंकि-ज्ञानी का अक्षर में तथा भक्त का पुरुषोत्तम में लय बतलाया है, इसलिये समुच्चय ज्ञान की बात भी व्यर्थ है। यदि कहें कि समुच्चय बोधक मानने से ही विरुद्धता का निराकरण होगा और तभी सब कुछ सुसंगत हो सकता है, सो भी असंगत बात है, पहिले ज्ञानमार्गीय ज्ञान को जानकर बाद में भक्ति मार्गीय ज्ञान से लय स्थान का निर्धारण करना असम्भव है । "ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा" इत्यादि कथन से निश्चित होता है कि-भक्तिमार्ग में तत्व रूप से भगवान् का ज्ञान ही एक मात्र प्रवेश का साधन है। "मत्कामरमणंजारं"
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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