SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४२० ) श्रुति में जो, साम्योपायन को ब्रह्मोपायन का हेतु बतलाया गया है उससे, साम्यानुपायन से ब्रह्म के अनुपायन की बात भी निश्चित होती है । अर्थात् अनुपायन में भी वही हेतु है । तथा-'परामिध्यानात् तु तिरोहितं" "ततोह्यस्य बंधविपर्प यौ” इन दो सूत्रों में-जीव, ब्रह्म का अंश है इसलिए आनंद ऐश्वर्य आदि धर्म वाला है, ब्रह्म से अलग हो जाने पर, परमात्मा की इच्छा से उनके धर्मों से रहित होकर संसार दशा को प्राप्त करता है, इत्यादि निर्णय किया गया है, उसे नहीं भूलना चाहिए, “तदुक्तम्" पद से यही ध्वनित होता है। जैसे कि-अन्य शाखा में कहे गए धर्मों का एक ही विद्या में उपसंहार करते हैं, वैसे ही ब्रह्मनिष्ठ धमों का जीव में उपसंहार करते हैं, यही उक्त थ ति से ज्ञात होता है । इतना ही साम्य है उपसंहार प्रकरण में इसका निरूपण किया गया है। ६ अधिकरण : सम्पराये तत्तव्याभावात्तथा ह्यन्ये ।३।३।२७॥ वाजसनेयि शाखायां-'स एष नेति नेतीत्यात्मा" इत्युपक्रम 'न व्यथते" इत्यन्तेन ब्रह्मस्वरूपमुक्त्वा यत् एताहक ब्रह्मातस्तद्विदपि विवक्षितरूप इत्यभिप्रायेणाग्र पठ्यते-"अतः पापमकरवमतः कल्याणमकरवम् इत्युभे एष तरत्यमृतं" इत्यादिना अग्रिम- "येष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य" इत्यूचा च ब्रह्मविदो माहात्म्यमुक्त्वा पठ्यते-"तस्मादेवं विच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः श्रद्धावित्तो भूत्वाऽत्मन्येवात्मनं पश्येत सर्वमेनं पश्यति सर्वोऽस्यात्माभवति सर्वस्यात्मा भवति सर्व पाप्मानंतरति, नैवं पाप्मा तरति" इत्यादि उक्त्वा अन्ते पठ्यते-“य एवं वेद" इति । अत्र हि पाप्मतरणादि रूपं ब्रह्मज्ञानमाहात्म्यमुच्यते ज्ञानस्य संसार मुक्ति हेतुत्वात् । अथर्वणोपनिषदादिपु तु भगवद् भक्तेर्मुक्ति हेतृत्वमुच्यते । “परं ब्रह्मैतद् यो धारयति" इत्युपक्रम्य भजति सोऽमृतो भवति" इति । अग्रेऽपि "मुक्तो भवति । संसृतिः" इति । एतद् विपय व्यवस्था तु पुरैवोक्ता इति नारोच्यते । एतावान् परं संदेहः “य एवं वेद स पाप्मानं तरति" इति वचनात् ज्ञानदशायामपि पापसत्वं वाच्यम् अन्यथा तरणासंभवापत्तः। एवं सति भक्तिदशायामप्येवमेव, नवेति भवति ? संशयः । तत्र श्रुताव विशेषेण पापनाशश्रवणान्मुक्तिपूर्व काले पापनाशावश्यम्भावादेकत्र निर्णीतः, शास्त्रार्थोऽपरत्रापि तथेति न्यायेन भक्त्या पापनाशदिवापि तथैव।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy