SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४१७ ) किन्तु वाग् आदि ने जैसे अपना भोग देवताओं को प्रदान किया वैसे प्राण के भोग की बात नहीं है, उसमें तो असुरों के जय के लिए, ब्रह्मात्मक भोग की चर्चा है । इसलिए अन्य के तो बेध की बात आई है । प्राण के बेध करने पर असुरों के नाश को चर्चा है । उक्त प्रसंग के आगे पाठ है कि-'जो इस प्रकार जानता है वह प्रजापति रूप में स्थित होता है और उससे द्वेष करने वाले भातृक (सौतेले भाई) का पराभव होता है।' इससे अधिक ब्रह्म की निर्दोषता के विषय में क्या कहा जा सकता है। भगवान् के विभूतिरूप मुखस्थ प्राण को जो जानता है वो भी गुग युक्त और दोष रहित होता है, ऐसा कैमुतिक न्याय से निश्चित होता है। इससे ये भी निश्चित होता है कि-लोक में जो धर्म दोष रूप से प्रतीत होते हैं, वे भगवान के लिए यदि कहे गए हों तो उन्हें दोष रूप से नहीं जानना चाहिए । किन्तु उन्हें गुणरूप से ही मानना चाहिए। अर्थात् गुण ओर दोष वस्तु के स्वरूपानुसार ही माने जाते हैं। एवं भगवत्संबंधाभावे दोषसंबंधमुक्त्वा तथासति गुणहानि च वदंस्तत्र विशेषमाह इस प्रकार दोष सम्बन्ध से भगवत् सम्बन्ध का अभाव बतलाकर उम्र सम्बन्ध में गुण हानि को विशेष रूप से बतलाते हैं। हानौतूपायन शब्द शेषत्वात् कुशा छंदः स्तुत्यु पगानवत् तदुक्तम् ।३।३।२६॥ "तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरंजनः परमं साम्यमुपैति इत्याथर्वणिकैः पठ्यते । परंपदेन ब्रह्मोच्यते । तथाच सकार्याऽविद्यारहित परममुपैति, तदनन्तरं साभ्यमुफ्तीति योजना । तत्रेदं विचार्यते -साम्यं हि समान जातीय धर्मवत्वं, तच्च कतिपय धर्मेर्वा भवति ? तत्रान्त्यः पक्षो ब्रह्मणासमं न सम्भवति । “न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते" इति श्रुति विरोधादत आद्य एव पक्षोऽनुसतव्यः । तत्र कैः धर्मैः साभ्यमिहोच्यते ? इत्याकांक्षायामाह-हानाविति । ब्रह्मणः सकाशाद् विभागोजीवस्य हानि शब्देनोच्यते, तथा च तस्यां मत्यां ये धर्मा जीवनिष्ठा आनन्दांशश्वर्यादयो भगवदिच्छया तिरोहितास्ते ब्रह्म सम्बन्धे सति पुनराविभूता इति तैरेव तथेत्यर्थः । भगवदानंदादीनां पूर्णत्वाज्जीवानंदादीनां अल्पत्वान्नाम्नैव समै : धमः कृत्वा ब्रह्म साम्यं जीव उपचर्यते । साम्यमुपैतीति वस्तुतस्तु नैतैरपि धर्मः साभ्यमिति भावः अतएव न तत्सम इति श्र तिरविरुद्धा । अतएत्र सूत्रकृता साभ्यसुपतीति
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy