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________________ उक्त मत पर सूत्रकार, 'वेदाद्यर्थभंदात्' सूत्र उपस्थित करते हैं, अर्थात् वाक् प्राण आदि में जो पापविद्ध होने की बात कही गई है, वही मुख्य हेतु है । आदि पद से दुष्ट विषय संबंध भी उसका अर्थ भेद में हेतु है। 'जो मुखस्थ 'प्राण है, उस मुख्य प्राण की उद्गीथरूप से उपासना करनी चाहिए' इत्यादि छांदोग्य श्रुति में इसी प्राण को उपास्य बतलाया गया है । सर्व वेदांत प्रत्यय न्याय के अनुसार, वेदांतों में, ब्रह्म के अतिरिक्त किसी अन्य को उपास्य नहीं कहा गया है, अत: मुखस्थ प्राण भी ब्रह्म से अभिन्न सिद्ध होता है । साम वेदीय उपनिषद् में ब्रह्म को अपहतपाप्मा कहा गया है, इसलिए प्राण के लिएपापाविद्ध होने की बात नहीं कही गई । सूत्रस्थ अर्थ पद, ब्रह्म के स्वतंत्र पुरुषार्थ का ज्ञापक परमात्मा का विभूति रूप ही जब निर्दोष है, तो मूल ब्रह्म की निर्दोषता के संबंध में कुछ भी कहना शेष नहीं रह जाता। अथर्वोपनिषद् का अर्थ प्रयोजन विषयक है अर्थात् भिन्नता प्रयोजक है (वाक् आदि से प्राण की भिन्नता बतलाता है। __ अत्रेदमाकूतम्-देवाहि स्वास्यासुरजयाय गानाथं वागादीनूचुस्त्वं न उद्गायेति गानानन्तरं यो वाचि भोगस्तं देवेभ्य आगार्यादति । एवं सति देवार्थमेवैतद्गानं न तु भगवदर्थम् । यद्यप्यासन्ये अप्येवमुच्यते तेभ्य एष प्राण उद्गायदिति, तथापि यथा वागादिषु स्वनिष्ठ भोगं देवेभ्य आगायदित्युक्तं तथा नासन्ये । तेनोक्तमानैव्रह्मात्मकत्वेनासुरजयहेतुर्भगवत्संबंध एवेति ज्ञात्वा तथैवागायदासन्य इति ज्ञायते । अतएवान्यत्र वेध उक्तोऽत्र तत्करणेच्छायामप्यासुराणां नाश उक्तः । अग्रे च ‘भवत्यात्मना परास्यं द्विषन् भातव्यो भवति य एवं वेद' इति पठ्यते । तेन परब्रह्म निदोंषमिति किमु वाच्यम् । यत्र यद् विभूति रूपासन्यस्योक्तरूपतां यो वेत्ति सोऽपि गुणयुक्तो दोषरहितश्च भवति इति कैमुतिक न्यायः सूचितो भवति । एतेन लोके दोषत्वेन ये धर्माः प्रतीयन्ते त एव धर्माः भगवति निरूप्यमाणा न दोषत्वेन ज्ञेयाः किन्तु गुणरत्वेनैव वस्तुन एव तथात्वादिति भावो ज्ञाप्यते । उक्त प्रकरण का रहस्य ये है कि देवताओं ने अपने को असुरों से विजयित होने के लिए वागादि से उद्गान करने को कहा । गान के बाद जो यह कहा कि तुम उद्गान मत करो, उसका तात्पर्य है कि उसका जो भोग है वो देवों को प्राप्त हो । इससे ये ज्ञात होता है कि उक्त उद्गान देवों के निमित्त था, भगवद् परक नहीं था यद्यपि मुखस्थ प्राण के लिए भी उद्गान को चर्चा है,
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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