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यह नहीं कह सकते कि सच्चिदानंद विग्रह सम्बन्धी बात हर जगह विरुद्ध होगी। सत्व भी, एक भगवद्धर्म है जो कि सच्चिदानंद विग्रह से अविरुद्ध है। मंत्रादि के द्वारा अधिष्ठातृ तो विभूति रूप हैं । इस विषय को ससुचित रूप से हमने भक्तिहंस में बतलाया है । तत्व तो "प्रकाशाश्रय की तरह है, क्योंकि उसमें तेज व्याप्त होता है" इस न्याय से भगवद्धर्म भी सच्चिदानंद रूप हैं, अतः वे परमात्मा, फलेच्छ उपासकों को उनकी ऊँची नीची उपासनाओं के अनुसार फल देने के लिए ऐश्वर्य आदि रूपों में स्थित होते है।
नन्वेकस्यैव शुद्धस्यैवानंतरूपत्वं भवतैवोक्तमतो मत्स्यादिरूपेष्वपि नाधिष्ठानत्वेन सत्वंवक्तुं शक्यम्, किंचवं निराकार स्वाभात्वंब्रह्मणः सिद्धयतीति सत्वाव्यवहितप्राकट्योक्तिरप्युपपन्न इति चेत् । मैवम् सत्वाधिष्ठानत्वस्य प्रमाण सिद्धत्वेनानपनोद्यत्वात् । तच्चोक्तं यदेकमव्यक्तमनंतरूपम्" इत्यादि । प्राकट्यं हि भक्ति निमित्तम् । सा तु बहुविधेति तदनुरूपं प्राकट्यमपि तथा । साँदिकार्येष्वधिकृतानां भक्तानांमतिरासक्तिरप्यस्ति इत्युपाध्यन्तरित स्नेहवत्वात् चानंतरूपत्वेन मत्स्यादि रूपोऽपि तदर्थ तद्व्यवहित एव प्रकटी भवति ।
यदि शंका करें कि-एक हो शुद्ध ब्रह्म की अनंतरूपता आपके कथनानुसार मत्स्यादि रूपों में भी, अधिष्ठान रूप से नहीं हो सकती क्योंकि ब्रह्म की निराकार स्वभावता प्रसिद्ध है इसलिए सत्व से अव्यवहित प्राकट्य की बात नहीं बन सकती । उक्त शंका भी असंगत है, सत्वाधिष्ठान प्रमाण सिद्ध है उसको झुठला नहीं सकते “यदेकमव्यक्तमतरूपम्" इत्यादि में स्पष्टतः कहा गया है । प्राकट्य तो भक्ति के लिए होता है। भक्ति अनेक प्रकार की है, प्राक्ट्य भी उनके अनुरूप होता है सर्गादि कार्यों में अधिकृत भक्तों में अन्यत्र भी आसक्ति रहती है इस स्नेह से प्रभु ने आने बने मत्स्यादि अनंत रूपों में उनकी भावनानुसार प्रकट कर दिया । जो एक मात्र भगवत्स्वरूप में आसक्त थे उनके लिए प्रभु स्वयं प्रत्यक्ष प्रकट हो गए ।
एतेनैव निराकारत्वाशंकापि निरस्ता। एतेन सोपधस्नेहवदर्थ मेव मत्स्यादि रूप प्राकट्यस्य प्रमाणसिद्धवात् निरुपधिततदर्थमेव श्री ब्रजनाथ प्राकट्यस्यापि तथात्वात् सोपाधिस्नेहवत्स्वपि पुरुषार्थदानस्यानुषंगिकत्वात् 'पुरुषविध" इति श्रुतेश्चतदेवरूपम", रसो वै सः" इत्यादि श्रुति प्रतिपाद्ये