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________________ ( ३६६ ) दूरश्रवणयदिवत् परिच्छिन्नेनाप्यनेनदेशगत कार्यकारण सामर्थ्य विशेषस्य वक्तुं शक्यत्वात् । अन्यथा पूर्वसिद्धव्यापकत्व विरोधेन सेत्वादि व्यपदेशः परिच्छिन्नत्वेन ब्रह्मणोऽन्यस्य परत्वं न शंकेत् । विरोध परिहाराय तु सामान्यात त्वविरोध इति वदेत् । प्रकरण का उपसंहार करने के लिए फलितार्थ बतलाते हैं। कोई इन सेतु आदि के मुख्यार्थत्व को निराकरण करके, इनसे ब्रह्म की व्यापकता सिद्ध करते हैं, सो उनका ये प्रयास असंगत है। “जन्माद्यस्ययतः" इत्यादि सूत्रों से ही परमात्मा का सर्वदेशगत कार्य कर्तृत्व बतलाया गया है उसी से उनकी व्यापकता सिद्ध होती है। ये भी नहीं कह सकते कि अविरोध साधन प्रकरण से, पूर्वसिद्ध सर्वगतत्व को उक्त ब्रह्मसूत्र में दिखलाकर सेतु आदि वाक्य से सामंजस्य किया गया है इसलिए, कोई विरुद्धता नहीं है। उनके इस कथन को न स्वीकारने से अग्निम पद व्यर्थ हो जायगा ये कथन भी असंगत है। इसमें एक विशेष ज्ञातव्य बात ये है कि उक्त कर्त्तत्व से ही केवल, ब्रह्म की व्यापकता को नहीं रोक सकते। योगसिद्ध दूरश्रवण आदि की तरह, परिच्छिन्न भी वह, अनेक देशगत कार्यकारण सामर्थ्य विशेप वाला है। यदि ऐसा न होता तो पूर्वसिद्ध व्यापकता के विरुद्ध, सेत्वादि के व्यपदेश से परिच्छिन्न ब्रह्म, की अन्यपरता की शंका न की जाती। उक्त विरोध के परिहार के लिए, सामान्य भाव से अविरोध सिद्ध किया गया। तस्मादेवं सूत्रार्थों ज्ञेयः । अनेनब्रह्मणोऽन्यस्य परत्व निरासेनायामशब्दादिभ्यो व्यापकत्ववाचक श्रु तिवाक्यादिभ्यः साक्षात् सर्वगतत्वाप्रतिपादकेभ्य एव सर्वगतत्वं सिद्ध यति, न तु गौतमीयानमिव कर्त्त त्वाद्यनुपपच्त्येत्यर्थः । ते च शब्दा “आकाशवत् सर्वगतश्च नित्यः," ज्यायादिवो ज्यायान् आकाशात्, वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्ण पुरुषेण सर्वम्" इत्यादयः । आदिपदात् “सर्वतः पाणि पादान्तं सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्, सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति" इत्यादि स्मृतयः संगृह्यन्ते । अनेन ब्रह्मणि श्रुतिरेव मुख्यं प्रमाणम् अनुगानं तु विलम्वोपस्थिकत्वेन साध्यसिद्धि पराहतमपीच्छाविशेषेण जननीयं चेदभ्युच्चयमात्रं पर्यवसस्यतीति भावः। इसलिए इस सूत्र का अर्थ ये जानना चाहिए कि इससे ब्रह्म के अन्य परत्व का निगस हो जाता है, तथा आयाम आदि शब्दों से ही उसकी व्यापकता सिद्ध हो जाती है । यद्यपि व्यापकत्व प्रतिपादक श्रुति वाक्यों से उसकी साक्षात् व्यापकता का प्रतिपादन नहीं किया गया है। वे व्यापकता सूचक शब्द ये हैं
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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