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निषेधपरक विरोधात्मक प्रवृत्ति पर है ? तथा जो विरोध है वह भी क्या उभय लिंग श्रवण से है अथवा दोनों के भेद से संबद्ध है ? विधिनिषेधपरक विरोधात्मक प्रवृत्ति संबंधी संशय का उत्तर देते हैं कि, जडजीव धर्मों की जो विधिनिषेध चर्चा है वह तो, जडजीव की, जडजीव धर्मों के आधार पर है अतः उसमें विरुद्धता का प्रश्न ही नहीं उठता । इसके अतिरिक्त अन्यत्र जहाँ कहीं भी विधिनिषेधात्मक प्रवृत्ति है, वह उपासना से संबंधित है। विरोध संबंधी उत्तर देते हुए अपना स्वमत उपस्थित करते हैं कि जो हमने भेद का निराकरण किया है, वह ठीक है फिर भी कार्यकारणांश भावकृत, भगवद् विहार के लिए किया गया जो भेद है, उसका निषेध करना सम्भव नहीं है। इसलिए ब्रह्म के सम्बन्ध में, जडजीव धर्मों का जो निषेध है, वह उचित है । "सर्वकर्म" आदि जो उपाधियाँ परमात्मा के लिए बतलाई गई हैं वो औपचारिक मात्र हैं । यह जगत परमात्मा के स्वरूप से नितान्त विपरीत है अतः परमात्मा की कृति नहीं हो सकता। इत्यादि संशय पर सिद्धान्त रूप से "अरूपवदेव" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । कहते हैं कि सर्वव्यवहार योग्य विश्व रूपवान है, ब्रह्म उससे विलक्षण है, कार्य
और कारण में अंशांशी सम्बन्ध होता है अतः उनमें विलक्षणता होना स्वाभाविक हैं। उनमें अविलक्षणा भी स्वाभाविक है, क्योंकि कारण ही तो कार्यरूप में परिणत होता है, वही तो कार्य का प्रधान वास्तविक रूप होता है। जगत का कारण ब्रह्म, प्रधान मुख्य है । जिसका प्रतिपादन जहाँ किया जाय, वही उस जगह मुख्य होता है। ब्रह्म के प्रतिपादन में, ब्रह्म के धर्मों की ही मुख्यता है । "सर्वकर्मा इत्यादि जो विशेषतायें हैं वो लौकिक कर्मों की अनुवादमात्र हैं, इसलिए भगवान के सम्बन्ध में वह निश्चित ही गौण हैं । सर्व शब्द विशिष्ट अर्थ का द्योतक है फिर भी लोक प्रसिद्ध "समस्त प्रपंच' का अनुवादमात्र है, इस शब्द की इससे अधिक गौरवपूर्ण अर्थ की कल्पना का कोई प्रमाण भी नहीं मिलता, परन्तु किसी प्रकार परमात्मा के गुण के रूप में, लोकधर्मों का सांकेतिक अर्थ मान लिया जाय तो वह वैशिष्ट्य बोधक हो सकता है। सामान्य विशेषताओं में तो हम उक्त प्रकार का निर्णय कर सकते हैं, किन्तु भगवद् गुणों के सम्बन्ध में ऐसा प्रशासकीय निर्णय नहीं कर सकते । इसलिए, कार्यरूप जगत की तरह, जागतिक विशेषताओं की भगवत्ता स्वीकार सकते हैं, क्योंकि वे भगवान के ही कार्य हैं, पर उन्हें भगवान की विशेषतायें नहीं मान सकते । प्रकाशवच्चावैयर्थ्यात् ॥३॥२॥१५॥
ननु सर्वव्यवहारातीते शास्त्र वैफल्यम् । “मनसै वैतदाप्तव्यम्' इति विरो