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________________ ३४५ उनकी व्यर्थता सिद्ध होती है । भगवान में भेद भी नहीं है, सृष्टि विषयक वाक्यों में स्पष्ट रूप से उसकी अद्वैतता का उल्लेख है "एकमेवाद्वितीयम्" इत्यादि । यदि उनके भेद की थोड़ी भी कल्पना की जायगी तो श्रुति विरोध होगा। भगवान व्यास देव श्रुति वाक्यों की अविरुद्धता सिद्ध करने के लिए ही सूत्रों की रचना में प्रवृत्त हुए हैं । इसलिए किन्हीं भी मतों के आधार पर, जीव और जड़ धर्मों के सत्त्व और असत्त्व का परिहार करना संभव नहीं है। न भेदादिति चेन्न प्रत्येकमतद्वचनात् ॥३॥२॥१२॥ प्रकारान्तरेण समाधानमाशंक्य परिहरति । न भवदुक्तोविरोधः संभवति । भेदात् । कारणकार्येषु सर्वत्र भेदांगीकारात् । प्रपंचविलक्षणं ब्रह्म भिन्नम । प्रपंच धर्मवद् ब्रह्माभिन्नम् तथाऽज्ञातं ज्ञातंच । एकस्य भेदस्यांगीकारे सर्वमुपपद्यत इति चेन्न । प्रत्येकमतद्वचनात, अभेदवचनात । इयं पृथिवी सर्वेषां भूताना माव॑ति ब्राह्मणे अयमेव स योऽयमिति सर्वत्राभेदवचनात कार्यकारणरूप प्रकाराणां भेदनिषेधात् । तस्मान्न भेदांगीकारेण श्रुतयो योजयितुं शक्याः । प्रकारान्तर से समाधान के प्रयास का परिहार करते हैं। समाधान करते हैं कि आपने जी विरोध की बात कही सो असंभव है, क्योंकि कारण और कार्यों में भेद है, प्रपंच जगत से विलक्षण ब्रह्म भिन्न है। प्रपच धर्म की तरह, ब्रह्म भी भिन्न है । जैसा कि "अज्ञातं ज्ञातं" इत्यादि से निश्चित होता है । एक के भेद स्वीकारने से सब कुछ समाधान हो जाता है। (उक्त समाधान का परिहार करते हैं कि) उक्त कथन असंगत है, क्योंकि सभी जगह अद्वैत का प्रतिपादन किया गया है। "इयं पृथिवी सर्वेषां भूतानां मधु" अयमेव स योऽयम्" इत्यादि सभी वाक्यों में अभेद कहा गया है। इनमें कार्य कारण के रूप और प्रकार भेदों का निषेध किया गया है। इसलिए भेद स्वीकारने से श्रुतियों का सामंजस्य नहीं कर सकते। अपिचैव भेके ।३।२।१३॥ .. . भेदांगीकारे बाधकमाह । अपि च, एवमेवाभेदमेव भेदनिषेधेनैकेशाखिनो वदन्ति । "मनसैवेदमाप्तव्यम," नेहनानास्ति किंचन "मृत्योः स मृत्युमाप्नोति . या इह मानेव पश्यति" इति भेद दर्शन निम्दा पचनात । तस्मान भेदांगीकारः
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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