SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१३ लिए जब कुछ भी भोगने को अवशिष्ट नहीं रहता। तभी वह वृष्टि भाव को प्राप्त होता है । 1 उच्यते, कृतात्ययेऽनुशयवान्, कृतस्य सोमभावस्यात्यये नाशे सति अनुशयवान अवान्तरफल साधकलेश सहित एव वृष्टि भावं प्राप्नोति । क्रुतः ? दृष्टस्मृतिभ्याम् । दृष्टं तावद् भोगसाधक मूल द्रव्यनाशेऽपि भोग साधक तादृशय देह वस्त्रा दिसहित एव तस्मात् स्थानादपगच्छति । अन्यथा सद्य एव देह पातः स्मात् । अतो यथा लोके सानुशमस्तथाऽत्रापि । स्मृतिश्च – “यद्यत्र नः स्वर्ग्यसुखावशेषितं स्विष्टस्य दत्तस्य कृतस्य शोभनं तेनाजनाभे स्मृतिमज्जन्म नः स्यात् वर्षे हरिर्यद भजतां शंतनोति" इति देवगा था । अतो ज्ञानौपयिक जन्म अनुशयवत एव भवति । अन्यथा पूर्व जन्म स्मृत्यभावे विषयासक्ति : प्रसज्यते । के समाप्त हो जाने पर प्राप्ति होती है । प्रत्यक्ष उक्त विचार पर निर्णय करते हैं कि सोमभाव अवान्तर फल साधक संस्कार सहित ही वृष्टिभाव की भी ऐसा देखा जाता है तथा स्मृति रूप से ऋषियों का भी ऐसा ही मत है । प्रायः देखा जाता है कि भगवदाराधन से, भोग के साधक मूल कर्मों का नाश हो जाता है फिर भी, प्रारब्ध कर्मवश, भोग साधक शरीर वस्त्र आदि सहित मुक्तात्मा, सांसरिक व्यवहार करता हैं । यदि ऐसा न हो, अर्थात् कर्मलेश न रह तो शरीर का तत्काल ही पात हो जाना चाहिए। इस प्रकार जैसे लोक में भोगवशेष मुक्ति होती है, वैसे ही वृष्टिभाव में भी भोगावशेष रहता है । " यद्यत्र नः स्वर्ग सुखावशेषित" इत्यादि देवगाथा भी इसी बात की पुष्टि करती है । इससे निश्चित होता है कि अनुभवोपयोगी शरीर अवशिष्ट भोग की अनुभूति के लिए ही प्राप्त होता है । यदि ऐस न हो तो, पूर्व जन्म स्मृति न होने पर भी, विषयासक्ति हो जाती । ननु अनुशय सहकृत एव जीवो नाद्भिः परिष्वक्तो भवेत् अत आह-यथेतम, यथागतम् । अन्यथा प्रश्न निरूपणयोर्बाधस्यात् । तर्हि तावदवान्तर फल साधक सहितः स्यादत आह अनेवंच । एवम्प्रकार मुक्तागमनं नास्ति । भोगस्य जातत्वात् । चकाराद् वैराग्य सहितोऽपि । तस्मादनुशयवान् भिन्न प्रकाराद्भिः परिष्वक्तो देवकृपासहितो वृष्टिर्भवतीति । अब संशय होता है कि यदि जीव के भोगवृष्टिभाव में भी शेष रह जाते हैं तो वह जल से संसक्त नहीं हो सकता । इस पर कहते हैं कि संसक्त होने वाली
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy