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________________ ३०० परमेश्वर ही है, वही नाम रूप का भी कर्ता है, उपरोक्त एक ही वाक्य में त्रिवत्करण और नाम रूपकरण दोनों के संकल्प की चर्चा की गई है । जीव तो त्रिवृत्करण होने के बाद शरीर संबंध से कर्ता कहा जा सकता है। नामरूप प्रपंच का भगवान ही कर्ता है । मांसादिभौमं यथा शब्दमितरयोश्च ॥२॥४॥२१॥ इदमिदानीं विचार्यते । “अन्नमशितं त्रेधाविधीयते तस्य यः स्थविण्ठो धातुस्तत् पुरीषं भवति, यो मध्यमस्तन्मासं, योऽणिष्ठस्तन्मनः । आपः पीतस्त्रेधा विधीयंते, तासाँ यः स्थविष्ठो धातुस्तन्मूत्रं, योमध्यमस्तल्लोहितं, योणिष्ठः स प्राणः । तेजोऽशितं त्रेधाविधीयते, तस्य यः स्थविण्ठो धातुस्थदस्थि भवति, यो मध्यमः सा मज्जा, योऽणिष्ठः सा वाक् । अन्नमयं हि सोभ्या मन आपोमय: प्राणस्तेजोमयी वागिति ।" तत्र संशयः, वाक्प्राणमनांसि कि भौतकानि, आहोस्वित् स्वतंत्राणि? एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च" इति श्रुतिविप्रतिषेधात् संशयः । त्रिवृत्करण प्रसंगेनोदिता माशंका निराकरोति ।, तत्र पूर्वपक्षमाह-मांसादि भौम, पुरीषमांसादि तेजोऽबन्न प्रकृतिकम् । कुतः ? यथा शब्दम् अन्नमशितमित्यादि श्रुतितो निःसंदिग्धं प्रतिपादनात् । किमतो योवं तदाह-इतरयोश्च, वाचितुल्यत्वान्न संदेहः । इतरयोर्मनः प्राणयोरपि भौतिकत्वं यथाशब्दं, उद्गम श्रुतिस्तु स्तुतित्वेनानुवाद परा भविष्यति । उपपादकति बाधात् , तस्माद् भौतिकान्येव मनः प्रभृतीनि । अब विचारते हैं कि-"खाया हुआ अन्न तीन रूपों में परिणत होता है. उसका स्थूलांश, विष्ठा बनता है, मध्यमांश मांस तथा सूक्ष्मांश मन बनता है। पिये हुए जल का स्थूलांश मूत्र, मध्यमांश रक्त, सूक्ष्मांश प्राण बनता है । खाये हुए तैजस पदार्थ का स्थूलांश हड्डी, मध्यमांश मज्जा और सूक्ष्मांश वाणी बनता है । हे सोम्य ! अन्नमय मन, जलमय प्राण और तेजोमय वाणी है।" इत्यदि को पढ़ कर संशय होता है, मन प्राण और वाणी, भौतिक हैं अथवा स्वतन्त्र ? ऐसा संशय "एतस्माज्जायते प्राणोः मनः सर्वेन्द्रियाणि च" श्रुति के आधार पर होता है क्योंकि इसमें तो इन तीनों की स्वतन्त्र रूप से उत्पत्ति कही गई है । त्रिवृत्करण के प्रसंग में की गई आशंका का निराकरण करेंगे। इस पर पूर्वपक्ष का कहना है कि-मांस आदि सब भौतिक ही हैं, ये तेज जल अन्न आदि प्राकृत वस्तुओं से होते हैं, त्रिवृत्करण को बतलाने वाली श्रुति तो ऐसा स्पष्ट कह रही हैं । वाणी के विषय में तो दोनों वाक्थों में एक सा ही उल्लेख है इसलिए संदेह नहीं करना चाहिए मन और प्राण को भौतिक कहा गया सो ठीक है,
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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