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________________ ( ३६ ) सकता है क्योंकि सब ब्रह्म ही तो है । इस संशय का समाधान करते हैं कि जैसे सुवर्ण से निर्मित कटक कुण्डल आदि सुवर्ण होते हुए भी प्रकार भिन्न हैं अर्थात् कटक कुण्डल नहीं है कुण्डल कटक नहीं है वैसी ही जगत् में भी भिन्नता है, भोग्य और भोक्ता भिन्न ही हैं दोनों में परस्पर सांकर्य सम्भव नहीं है । सप्तम अधिकरण "वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेव सत्यम् छान्दोग्य में श्रुति "कार्य मान को मिधा वतलाया गया है । उसी प्रकरण में “सौभ्येकेन मृत्यिण्डेन सवंमृण्भय विज्ञातं भवति "दृष्टान्त देकर ब्रह्म को समवादि कारण रूप से सिद्ध किया गया है। यह तो प्रत्यक्ष श्रुति विरोध है। इस पूर्वपक्ष का निराकरण करते हैं कि "वाचारम्भणं" इत्यादि वाक्य में कार्य कारण की अनन्यता का प्रतिपादन किया गया है, मिथ्यात्व का प्रतिपादन नहीं किया गया है। अतः कोई विरोध नहीं है । जैसे कि संवेष्टित पर की विशेषता विस्तृत होने पर ही ज्ञात होती है वैसे ही जगत के आविभवि अन्यविभवि को बात भी है। अष्टम अधिकरण ब्रह्म को जगत का कारण मानने पर एक दोष स्पष्टतः सामने आता है कि सृष्टि में अनेकानेक जीव दुखी है ब्रह्म ने ऐसा किस विचार से किया ऐसा अनहित करने पर तो वही दोषी सिद्ध होता है जबकि तुम ब्रह्म को स्वभाव से सर्वथा निर्दोष बतलाते हो। इस मत का निराकरण करते हुए तर्क प्रस्तुत करते हैं कि जैसे हीरा माणिक्य आदि सभी पार्थिव होते हुए भी बहुमूल्य होने से सामान्य पाषाण से श्रेष्ठ हैं तथा पलाश, चम्पक, नीम, चन्दन आदि वृक्षों में गुणानुसार तारतम्य है वेसे ब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यन्त सभी जीवों तारतम्य है, जो कि दोषावह नहीं है। नवम अधिकरण अकेले ब्रह्म को जगत के निर्माण में साधनान्तरों की अपेक्षा है इस पूर्णपक्ष का निराकरण कर सिद्धान्ततः ब्रह्म को जगत निर्माण में साधनान्तरों की अपेक्षा नहीं होती, ऐसा निर्णय करते हैं। दशम अधिकरण . ब्रह्म निरीन्द्रिय है, अतः ब्रह्म का जगत कत्र्तृत्व सम्भव नहीं है इस पूर्वपक्ष
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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