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________________ ( ३५ ) अनात्म विवेक द्वारा आत्मतुष्टि हो, इसी उद्देश्य से की हैं। निषिद्ध योग और सांख्य तथा अन्य शाक्त आदि मतों का फल तो नरक है अतः उनका समन्वय संभव नहीं है। द्वितीय अधिकरण योगस्मृति से वैदिक समन्वय का संकोच तो नहीं हो जाता इस पर पूर्वपक्ष कहता है, कि होता है, किन्तु भाष्यकार का मत है कि नहीं होता। तृतीय अधिकरण ब्रह्म चैतन्य है, जगत जड़ है दोनों में विलक्षणता है अतः ब्रह्म की जगतकारणता बोधक श्रुतियों के समन्वय में बाधा होती है या नहीं इस पर पूर्वपक्ष का कथन है कि अचेतन जगत चेतन ब्रह्म से कदापि उत्पन्न नहीं हो सकता अतः समन्वय में बाधा तो है ही। इसका सतर्क उत्तर देते हुये सिद्धांत बतलाते हैं कि अचेतन गोबर इत्यादि से वृश्चिक की उत्पति तथा चेतन पुरुष से अचेतन केश नख आदि की उत्पति प्रत्यक्ष देखी जाती है अतः ब्रह्म से जगदुत्पति में क्या बाधा है । इसलिए वैदिक वाक्यों का समन्वय है। चतुर्थ अधिकरण ___ 'असद्वा इदभन आसीत्' इत्यादि श्रुति समन्वय में बाधक होती है या नहीं इस संशय पर पूर्वपक्ष कहता है कि उक्त श्रति में स्पष्टतः असद को ही जगत का कारण बतलाया गया है ? सत् ब्रह्म को तो कहा नहीं गया है अतः ब्रह्मकारणता बोधक श्रुतियों के समन्वय में बाधा तो है ही। इस पर स्वमत की पुष्टि में 'कथम् सतः सज्जायेत्' इत्यादि श्रुति को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पूर्वोक्त श्रुति का निषेध इस श्रुति में है अतः समन्वय में कोई बाधा नहीं है। पञ्चम अधिकरण जैसे सांख्यमत, वैदिकमत से अति सन्निकट है वैसे ही अन्यान्य कणाद आदि को स्मृतियाँ भी वैदिकमत से समन्वित हो सकती हैं। षष्ठ अधिकरण यदि जगय का समवायिकरण ब्रह्म को ही मानते हैं, तो भोग्य जो माला चन्दन आदि हैं उनमें भोक्त त्व हो सकता है तथा भोक्ता जीव में भोग्यत्व हो
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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