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________________ २५६ विप्रतिषेधाच्चासमंजसम् | २|२|१०|| परस्परविरुद्धत्वान्तर्वर्तिनां afroar वेद एव प्रमाणं नान्यदिति । पंचविशा दिपक्षांगीकारात्, वस्तुतस्त्व सांख्य वाले पच्चीस आदि कई तत्त्व मानते हैं, कोई पचीस, कोई छब्बीस कोई सा कोई पन्द्रह, कोई ग्यारह कोई चार, कोई सत्रह, कोई सोलह, कोई तेरह | इस प्रकार उनमें स्वयं ही परस्पर मतभेद है। वस्तुतः अलौकिक अर्थ में तो वेद ही एक मात्र प्रमाण हैं, कोई दूसरा नहीं । २ श्रधिकरण महद्दीर्घवद्वा हृपरमण्लाभ्याम् | २|२|११|| इदानीं परमाणुकारणवादो निराक्रियते । तत्र स्थूलकार्यार्थं प्रथमं परमाणुद्वयेन द्वयरणुकमारभ्यते, परमाणद्वयसंयोगे द्वयणुकं भवतीत्यर्थः । तत्रो पर्यो भाव मिलने द्वयणुकं महत् स्यात् द्विगुण परिमाणवत्वात् प्राक्पश्चामिलने दीर्घवद् वास्यात् । परमाणु परिमाणं ह्रस्वं परितोमडलं च उपहासार्थं तस्य मतस्यानुवादः । परमाणु कारणवाद का निराकरण करेंगे। वे लोग स्थूल जगत के निर्माण में सर्व प्रथम दो परमाणुत्रों के संयोग की बात करते हैं उनका कथन है कि दो परमाणुओं के संयोग से द्वयरणुक होता है उसके ऊपर नीचे द्वयकों का संयोग होते होते महत् रूप हो जाता है तथा दो-दो द्वयकों के श्रागे पीछे मिलने से दीर्घ रूप होता है । परमाणु परिमाण में ह्रस्व और गोल होते हैं । इनके इस मत की चर्चा केवल उपहास की दृष्टि से की जा रही है । किमतो यद्येवमतश्राह -- इसमें आपको क्या आपत्ति है ? उसका उत्तर देते हैं— उभयथापि न कर्मातस्तदभावः | २|४|१२|| उभयथापि न, कुतः ! न कर्म, नकारो देहली प्रदीपन्यायेनोभयत्र संबद्धत । तद्वरक भावः । उभयवांपिन परमाणु संघट्टनम्, प्रदेशाभावात कल्पना मनोरथमात्रम् । श्रसंयुक्तांशाभावात् तदेवतत् स्यात् । सयोगजनक कर्मापि न संभवति, कारणान्तराभावात् । प्रयत्नवदात्मसंयोगे अदृष्टवदात्म संयोगे चाभ्युपगम्यमाने निरवयवत्वात् तदेव तत् स्यात् । विशेषाभावाद् विभागस्याशक्यत्वाच्च प्रतो द्वयणुकस्याभाव: ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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