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________________ २५७ अन्यत्राभावाच्च न तृणादिवत् | २|२५|| तृणपल्लवजलानि स्वभावादेव परिणमन्त एवमेव प्रधनमिति न मंतव्यम् । अन्यत्र शृंगादी दुग्धस्याभावात । चकाराच्चेतन क्रियाऽप्यति । ततश्च लोकदृष्टान्ताभावादचेतनं प्रधानं न कारणम् । यदि कहें कि तृण पल्लव जल आदि खाने पर गाय प्रादि में जैसे वह स्वतः ही दुग्ध के रूप में परिणमित हो जाते हैं, ऐसे ही यह जगत प्रधान का परिणाम है। इसे नहीं स्वीकारा जा सकता, श्रृंगी आदि में तो तृण से दूध नहीं होता । फिर तृतादि भक्षण में गाय आदि चेतन जीव की क्रिया होती है, स्वतः तो परिणाम होता नहीं । लोक में स्वतः परिणाम का प्राकृत दृष्टान्त मिलता नहीं इसलिए अचेतन प्रधान कारण नहीं है । श्रभ्युपगमेऽप्यर्थाभावात् । २२|६|| प्रधान कारणवादांगीकारेऽपि प्रेक्ष्यकारित्वाभावान्न पुरुषार्थः सिद्ध्यति । यदि प्रधान कारणवाद को मान भी लें तो भी पुरुषार्थ सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि प्रधान में प्रेक्ष्यकारिता का प्रभाव है [ प्रर्थात् प्रधान में विचार शक्ति नहीं है, सृष्टि के कौशल को देखकर ज्ञात होता है कि इसका निर्माण विचार द्वारा किया गया है] पुरुषाश्मवदिति चेत्तथापि । २२|७|| प्रधानस्यकेवलस्य कारणवादो निराकृतः । पुरुषप्रेरितस्य कारणत्वमाशंक्य परिहरति । पुरुषः पंगुरंधमारुह्यन्योन्योपकाराय गच्छति, यथा वा प्रयस्कातं सन्निघिमात्रेण लौहे क्रियामुत्पादयति । एवमेव पुरुषाधिष्ठितं पुरुषसन्निहितं वा प्रधानं प्रवत्तयिष्यत इति चेत् तथापि दोषस्तदवस्थः । प्रधान प्रेरकत्वं पुरुषस्य स्वाभाविक, प्रधान कृतंवा ? श्राद्ये प्रधानस्याप्रयोजकत्वम् । द्वितीये प्रधान दोषस्तदवस्थः । नित्य संबंधस्य विशिष्टकारणत्वे प्रनिर्मोक्षः । श्रशक्तस्तु मोक्षांगीकारः सर्वयानुपपन्नः । केवल प्रधान कारणवाद का निराकरण कर दिया अब पुरुष प्रेरित कारण की संभावना का निराकरण करते हैं। यदि कहो कि- पुरुष और प्रकृित अंधे और लगड़े की तरह एक दूसरे का उपकार करते हुए चलते हैं, या चुम्बक पत्थर के सन्निधिमात्र से लोहे में जैसे स्पंदन होता है वैसे ही पुरुष से श्रधिष्ठित या पुरुष के नैकट्य से प्रधान, सृष्टि करती है ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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