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________________ २१८ भगवत इति, द्वयोरेकार्थत्वे सर्व संगतं स्यात् । खंडत्वाच्च शेषत्वम् । सर्व प्रवृत्तिकत्वाद् भगवतो न माहात्म्य विरोधः । तत्र प्राण शब्देन त्वग् घ्राण प्राणाः गृहीताः रसना । चान्ने प्रतिष्ठितेत्यन्नं गृहीतम् । वाग् वा तेजसि अत्ता चान्न चौकत्र भवतः । सह भावित्वात् । क्वचिदेक ग्रहणम्, क्वचिदुभय ग्रहणमिति तेन ते सर्वे पंचैव भवंत्यतिरिच्यते परमाकाशः तस्मात् प्राणादय एव पंचाजना इति न तन्मत सिद्धिः । "प्राणस्य प्राणः" इत्यादि को उक्त वाक्य का शेषांश कैसे कह सकते हैं ? इस पर कहते हैं कि-प्राण आदि संज्ञा सूचक, इन्द्रियों के बोधक शब्द हैं । वे चाहे ज्ञान रूप हों, या क्रिया रूप हों, अपने व्यापार के कार्योत्पादन करते हैं । यदि इन शब्दों की इन्द्रियपरकता समाप्त हो जाय तो प्राण आदि की प्राणादिमत्ता समाप्त हो जायेगी । तथा भगवान के माहात्म्य से भी विरोध होगा। इसलिए इनका निजी अर्थ करने के लिए पंचजन वाक्य का, अन्यार्थ मानना ही ठीक है । प्राण प्रादि पंचजन बुद्धि की पांच प्रकार की वृत्ति को प्रकट करते हैं--"संशय, विपर्यास निश्चय, स्मृति और स्वाप ये पांच बुद्धि के लक्षण, वृत्तियों की प्रवृत्तियों से होते हैं।" उनकी विभिन्न प्रवृत्तियाँ स्वतः नहीं होती अतः भगवत प्रेरणा से होती हैं इसलिए उन दोनों को एकार्थ रूप से कहा गया है । ऐसा मानने से सब संगत हो जाता है । दोनों में गौण मुख्य भाव मान लेने से ही "प्राणस्य प्राणः" आदि वाक्य, उक्त वाक्य का शेषांश निश्चित होना है। समस्त को प्रवृत्त करने वाले भगवान हैं, इस नियम के अनुसार भगवान के माहात्म्य से भी विरोध नहीं होता । उक्त प्रसंग में प्राण शब्द से त्वम् ब्राण और प्राण, इन तीन का ग्रहण होगा। रसना अन्न में प्रतिष्ठित होती है, इसलिए अन्न शब्द से उसका ग्रहण होगा । वाणी तेज में प्रतिष्ठित होती है इसलिए उसका उस रूप में ग्रहण होगा । भोजन के लिए ही प्रन्न होता है इसलिए अन्न शब्द से दोनों भाव ग्रहण होंगे । इस प्रकार कहीं एक और कहीं दो का ग्रहण होने से वे हैं-पांच ही, परमाकाश केवल भिन्न हैं इससे निश्चित होता है कि प्राण प्रादि ही अपनी वृत्तियों सहित पंच पंच जना वाक्य के संख्या वावी हैं, सांख्यमत के पच्चीस तत्त्वों की चर्चा नहीं है । ज्योतिषकेषाम् सत्यन्ने ।१।४॥१३॥ काण्व पाठे "अन्नस्यान्तम्" इति नास्ति, तदाकथम् पंच ?
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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