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________________ २.१६ मृतोऽमृतमिति" यद्यप्यत्र पंचजनाः पंचोच्यन्ते न पंचानां पंचगुणत्वम्, समासानुपयन्तेः तथाहि, प्राद्यः पंचशब्द संख्यावाची संख्येयवाची वा ? श्रद्य पंच संख्याया एकत्वान्न षष्ठी समासः । संख्यायां संख्या भावाच्च । संख्ये परत्वे द्वितीयस्य संख्यात्वे पंचत्वमेव पूर्ववच्चेदनन्वायः विधायका भावाच्च । अब दूसरे मंत्र से शंका करते हुए परिहार करते हैं वृहदारण्यक के छठे अध्याय की श्रुति है - " जिसमें पांच-पांच जन और प्रकाश प्रतिष्ठित हैं, " इत्यादि, यद्यपि इस वाक्य में पांच जन पांच कहे गए हैं पाँचों के पांच गुरण की चर्चा नहीं है । समास से ऐसा ही समझ में आता है । अब प्रश्न है कि पहिला पंच शब्द संख्या वाची है या संख्येय वाची ? वह पंच शब्द संख्या वाची है तो उसमें षष्ठी समास नहीं हो सकता । क्यों कि संख्या में संख्या का भाव रहता है । यदि उसे संख्येय परक मानें तो, द्वितीय को संख्या वाची मानेंगे, इस स्थिति में पंचत्व ही होगा, उसमें भी पहिले की तरह अन्वय न हो सकेगा तथा विधायक का निर्णय न हो सकेगा । तो वीप्सा, पंचजन संज्ञा विशिष्टानां वा पंचत्वमिति यथा संभवमर्थः । तथापिमूढ ग्राहेण संख्योपसंग्रहादपि लक्षरणार्थं केनचिद् धर्मेण पंच संग्राहकेरण भाव्यम् । स च तेषां मतेन संभवति, तथा सति पंचैवतत्वानि स्युः । प्रतस्ते नाना भावादेव स्वीकर्त्तव्याः । यद्यपि भूततन्मात्राकूति चित्त्यन्तः स्थितत्त्व धर्माः वक्तुं शक्यन्ते । तद्यापि न ते तथोक्तवन्तः मूल प्रकृतिरविकृतिभंह दाद्याः प्रकृति विकृतयः सप्त । षोडशकञ्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुष इत्यन्यथोपगमात् पुरुषेवैलक्षण्या भाव प्रसंगश्च । किंच नामं श्रत्यर्थ इति श्रुतावेव प्रतीयते । अतिरेकादाकाशश्चेति चकारादात्मा यस्मिनित्यधिकरणत्वेनोक्तः । तस्मान्नानेनापि मंत्रेण तन्मतसिद्धिः । 1 पंच जन संज्ञा, विशिष्टार्थक पांच तत्त्वों के संबंध में है तब तो पंचत्व ही तुम्हारे मतानुसार अर्थ करना होगा। फिर भी कोई महानुभाव आग्रह पूर्वक लक्षरण से, पंच संग्राहक संख्योप संग्रह को स्वीकारते हैं, वह तो उन्ही के मत में संभव है, वैसा मानने से तो पाच तत्त्वों की बात ही निश्चित होती है । उन्हें नानाभाव ही स्वीकारना होगा । भूतों की तन्मात्रानों को चित्त के अन्तस्थ धर्म के रूप में कहा जा सकता है, किन्तु उनका वैसा
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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