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________________ २११ हमारे व्याख्यान में तो तीन प्रकरण हैं, अन्यथा वैसे तो चार प्रकरण है । तीसरी वल्ली का प्रसंग है कि-नचिकेता यम से पूछता है -- "हे मृत्यु ! मुझ श्रद्धालु को स्वर्ग स्थिति अग्नि के स्वरूप का उपदेश दो ।" इस प्रथम प्रश्न के उत्तर में यम " प्रब्रवीभि" इत्यादि उत्तर देते हैं । द्वितीय प्रश्न में पूछता है कि - "जो यह मरता है, उसका मरणोत्तर अस्तित्व नहीं रहता ऐसा मत है, अस्तित्व रहता है ऐसा दूसरा मत है" यम "देवरत्रापि" उत्तर देते हैं । " अन्यत्र धर्मादन्यत्र धर्मात्" इत्यादि तृतीय प्रश्न करने पर "सारे वेद जिस पद को प्राप्त करते हैं" इत्यादि उत्तर दिया गया इस प्रकार अग्नि जीव और ब्रह्म संबंधी प्रश्नोत्तर हैं । यदि “ इन्द्रियेभ्यः परा" इत्यादि से सांख्य मत का निरूपण करते हैं तो फिर चौथे प्रकरण पर का उपन्यास करना पड़ेगा, उपन्यास में प्रश्नोत्तरों की ही व्याख्या होगी उसमें तो प्रकृति की चर्चा है नहीं । इस प्रकार तीन ही प्रकरणों की सिद्धि होती है । महवच्च |१|४|७| तनु तद्यापि मतान्तरेऽन्यत्र संकेतितः कथं ब्रह्मवादे ब्रह्म परतया योज्यन्ते ? इत्याशंक्य परिहरति-- मदद्वत् यथा महच्छन्दः । " महान्तं विभुमात्मानं " वेदाहमेत पुरुषं पुरुषं महान्तम्" इत्यादी महच्छब्दो ब्रह्म परो योगेन । एव भव्यक्त शब्दोऽप्यक्षरवाचक : ' इति । नहि सांख्यमत इव वेदान्तेऽपि महच्छन्दः प्रथम कार्ये वक्तुं शक्यते । तस्मादिन्द्रियादि वाक्ये सांख्व परिकल्पितानां पदार्थानां नामापि नास्तीति सिद्धम् । चकारोऽधिकरण पूर्णत्व द्योतकः । संकेतित है, फिर ब्रह्मवाद परिहार करते हैं कि-महान्तम् " इत्यादि में मतान्तर में तो अव्यक्त शब्द दूसरी ही प्रोर में ब्रह्मपरक ही कैसे मानते हैं ? ऐसी आशंका कर जैसे - " महान्तं विभुमात्मात" वेदाहमेतं पुरुषं महत् शब्द ब्रह्म परक माना गया है वैसे ही अव्यक्त शब्द भी अक्षर वाचक है । सांख्य मत की तरह वेदांत में भी महत् शब्द प्रकृति परक हो ऐसा नहीं कह सकते । इसलिए इन्द्रियादि वाक्य में सांख्य परिकल्पित पदार्थों का नाम भी नहीं है । सूत्रस्थ चकार प्रधिकरण की पूर्ति का द्योतक है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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