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________________ २०७ । करना होगा तभी वह कृत कार्य हो सकेगा इन्द्रियों को तटस्थ कर देने पर ऐसा संभव नहीं है । बुद्धि, आत्मा को मार्ग दिखलाने वाली है, वह ब्रह्मविषयक होने पर महद् नाम वाली कहलाती है । वही बुद्धि परम अव्यक्त रहती है, प्रकट नहीं होती होती भी है तो भगवत् कृपा से ही, वह भगवान के ही अधीन रहती है किसी अन्य से नहीं । वह भगवान स्वाधीन हैं। ऐसा अर्थ ही उक्त वाक्य का उचित है। अधिक क्या श्रुति भी स्वयं इसी अर्थ को बतलाती है "इन समस्त भूतों में छिपा हुआ पात्मा दीखता नहीं है, सूक्ष्मदर्शी भगवत्कृपा से सूक्ष्म बुद्धि से इसे देखते हैं।" इत्यादि, सूक्ष्म का ताप्पर्य उपनिषद् के अनुसार बुद्धि से, भगवत ज्ञान से ही उस की प्राप्ति होती है। सूत्रस्थ चकार का प्रयोग स्मृति के इस वाक्य की मोर इंगन करता है- "मुझे तत्त्व से जान कर उसमें प्रवेश करते हैं" इत्यादि । इस प्रकार साधनोपदेश के अनुसार यह सांख्य सम्मत तत्त्व का विवेचक वाक्य नहीं है। सूक्ष्मन्तु तदर्हत्वात् ।१।४।२॥ नन्वव्यक्तशब्देन न भगवत्कृपा वक्तुं शक्या । धर्मिप्रवाहादित्याशंक्य परिहरति तु शब्दः । सूक्ष्म तद् ब्रह्मव। धर्मिणोरभेदात् । अव्यक्त शब्देन हि सूक्ष्ममुच्यते । तदेव हि सर्व प्रकारेण न व्यज्यते, अहत्वात्, तदेव अहं योग्यम् उभयत्राप्ययं हेतुः । तस्माद्धर्मिणोअभेदात् भगवान् एव सूक्ष्ममिति तत्कृपवाऽव्यक्त वाच्या । अव्यक्त शब्द से भगवत्कृता नहीं कह सकते क्यों कि-वैसे ती सबको धारण करने वाले वे परमात्मा ही तो समस्त में अनुस्यूत हैं, फिर भेद किस आधार पर करोगे ? ऐसी आशंका का प िहार तु शब्द से करते हैं, कहते हैं कि-- सूक्ष्म वह ब्रह्म ही है, उसका सूक्ष्म रूप ही सब में अनुस्यूत है, इसी आधार पर समस्त का अभेद है । अव्यक्त शब्द सूक्ष्मता का वाची है, वह हर प्रकार से गोप्यहै, उसी में ऐसी अर्हता है, . अव्यक्त ब्रह्म रूप और भगवत्कृपा दोनों ही जगह एक ही हेतु है, अर्थात् सूक्ष्मता ही हेतु है । धर्मि में अभेद होने से भगवान ही सूक्ष्म हैं, वही कृपा रूप से अव्यक्त नाम वाले हैं।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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