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________________ १८४ कुछ संशय उपस्थित करते हुए उसका निराकरण करते हैं, ऐसा केवल अपने मत को पुष्ट करने के लिए ही कर रहे हैं । इस प्रपंच का अनुकारित्व और वाच्यत्व, ब्रह्मपरक स्वीकारने से प्रपंच में तो सृष्टि और प्रलय होता रहता है अतः ऐसी अनित्य सृष्टि के वन करने वाले वेद भी श्रनित्य सिद्ध होंगे ? तत्राहसमाननामरूपत्वादावृत्तावप्यविरोधः वस्तुतस्तु भगवद् रूपरवादाविर्भावतिरोभावेच्छयैव तथात्वान्नवृत्ति शंकापि । तथापि लोकबुद् यनुसारेणा वृत्तावपि समान नामरूपत्वात् समुद्र जलक्षेपवत् । पुनरुपादाने तदेवेति निश्चयाभावेऽपि नामरूपयोस्तुल्यत्वादन्यस्य भेदकस्याभावानानित्यसंयोग विरोधः । कुत: ? दर्शनात् दृशते हि तथा-वेद पितृमातृस्त्रीभर्तृ शरीर गंगादिषु तदेवेदमिति व्यवहारस्य सिद्धत्वात् । "सुर्याचंद्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्" - दिवंच पृथिवीं चान्तरिक्षमथो सुवः " इति । स्मृतेश्च "सर्व वेदमयेनेदमात्मनाऽत्मयोनिना प्रजाः सृजयथापूर्व याश्च मय्यनुशेरते" इत्यादिस्मृतेः । सर्वस्मृतेश्च ऋषीणां पूर्वचरितस्मरणं स्मृतिरुच्यत इति । श्रतोऽथंबल विचारेऽपि पदर्थानां नित्यत्वान्न वेदस्यानित्य संबंध: । उक्त संशय पर " समान नामरूप" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत कहते हैं । कहते हैं कि वस्तुतः ये जगत् भगवद् रूप है इसलिए इसका भगवान् की इच्छा से केवल प्राविर्भाव तिरोभाव मात्र होता है, नाश नहीं होता, इसलिए उसकी सृष्टि की बात भी नहीं सोचनी चाहिए वह तो केवल प्रावृत्ति मात्र है । जो श्रावृत्ति होती है वह पूर्व सृष्टि के अनुसार ही होती है, उसमें जो भी पदार्थ होते हैं वे सब पूर्व सृष्टि के समान ही नाम रूप वाले होते हैं, इसलिए लौकिक बुद्धि से इसे प्रावृत्ति ही कह सकते हैं । जैसे कि समुद्र में जल डाला जावे सृष्टि की बात भी वैसी ही है । फिर परमात्मा, इस जगत का उपादान कारण भी है, इससे यह जगत् उसका ही रूप है, इसीलिए इसके नाम रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता, इसलिए जो कुछ भी भिन्नता दीखती है वह, काल्पनिक ही है, अतः अनित्यता की बात भी काल्पनिक ही हैं। ऐसा प्रत्यक्ष देखने में श्राता भी है कि पिता
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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