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________________ १४५ कृतमित्याह । तत्र का संपत्तिः, कथमिति स्वयमेव श्रुत्या प्रदर्शयति ? वाजसनेयि ब्राह्मणे द्य प्रभृतीन् पृथिवीपर्यन्तान् वैश्वानरस्यावयवान, अध्यात्मे च मूर्द्ध प्रभृतिषुचिबुकपर्यन्तेषु संपादयन् “प्रादेशमात्रमिह वै देवाः सुविदिता अभिसम्पन्नास्तथा तु वा एतान् वक्ष्यामि यथा प्रादेशमात्रमेवामिसंपादयिष्यामि" इति । “स हो वाच मूर्धानमुपदिशन्नेष वा प्रतिष्ठा 'वैश्वानरः" इत्यादिना संपत्ति निमित्तमेव प्रादेशमात्रत्वं वैश्वानरस्याह । ननु प्रादेशमात्र एव वैश्वानर इति । तदेकदेशिपरिहारं जैमिनिमन्यते । परमात्मा के व्यापक और प्रादेशमात्र इन दो रूपों में स्पष्ट विरोध है, इसका परिहार करते हुए जैमिनि, आकारवाद में नियत साकारता को मानते हुए, एकदेश में नियत, भगबद् रूप को प्रादेश मात्र मानते हैं। उनका कथन है कि, श्रुति उक्त विरोध के निराकरण के लिए सर्वत्र, प्रादेशत्व संपत्ति का विधान करती है । वह संपत्ति क्या है, श्रुति उसका स्वयं कैसे प्रदर्शन करती है ? इस जिज्ञासा पर कहते हैं कि, वाजसनेयी ब्राह्मण में, धू से लेकर पृथिबी तक समस्त वैश्वानर के अवयवों को, अध्यात्म दृष्टि से मूर्द्धा से चिबुक पर्यन्त प्रादेश मात्र में दिखलाते हुए कहते हैं- "प्रादेशमात्र में व्याप्त यह देवता प्रसिद्ध है" इत्यादि तथा “यह वैश्वानर उसी में है' इत्यादि में वैश्वानर का संपत्ति के लिए ही प्रादेशमात्र रूप में वर्णन किया गया है, प्रादेशमात्र ही वैश्वानर हो ऐसा नहीं है । ऐसा एक देशीय परिहार जैमिनि मानते हैं। प्रामनन्ति चैनमस्मिन् ॥२॥३२॥ ___ मुख्यं स्वसिद्धान्तमाह । व्यापक एव प्रादेश इति, न हि विरुद्धमुभयं भगवत्यनवगाह्य महात्म्ये । तस्मात् प्रमाणमेवानुसतव्यं न युक्तिः । शब्द बल विचार एव मुख्यः । ननु प्रातीतिकविरोधानन्यथात्वकल्पनम् । वैश्वानरस्य पुरुषत्वं, पुरुषविधत्वं पुरुषेऽन्तः प्रतिष्ठितत्त्वं च वाजसने यिनः समामनंति । न हि तस्य तद्विधत्वं, तस्मिन्प्रतिष्ठितत्वं च संभवति युक्त्या । अतोऽन्ये ऋषयो भ्रान्ता एव ये अन्यथा कल्पयन्ति इत्यभिप्रेत्य स्वमतमाह। अब मुख्य रूप से अपना सिद्धान्त 'बतलाते हैं कि, वह व्यापक ब्रह्म ही प्रादेशमात्र भी है, भगवान के माहात्म्य को न जानने के कारण ही इसमें
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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