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________________ अथ मन्यते, उपनिषत्पाठादन्यत्रानि‘राज्जीवब्रह्मपरत्वेऽपि यतोरभेदाद् ब्रह्मपरतव वाक्यस्य युक्ते ति, तथापि कस्य निर्णायकत्वं, प्रकरणस्यार्थस्य वेति । उभयोरपि संदिग्धत्वादयुक्तो विचार इति चेत् । उपनिषद के पाठ के अतिरिक्त यह निश्चित करना कठिन होता है कि यह जीव परक है या ब्रह्म परक किन्तु उन दोनों में प्रभेद होने से इस वाक्य को ब्रह्म परक मानना ही संगत है । इस प्रसंग में किसे निर्णायक माने प्रकरण को या अर्थ को ? दोनों में ही संदेह होने से ब्रह्म परक मानना ही संगत है। उच्यते-संदेहवारकं शास्त्रं पद शक्त्या तु निर्णयः । ___ जीवादुत्कर्षशब्देन द्वयोर्वाक्येऽपि न क्षतिः । उक्त संशय का उत्तर देते हैं कि इस विषय में संदेह का निवारक, शास्त्र ही होता है , संदेह का निर्णय पंदशक्ति से ही होता है जीव से उत्कृष्ट शब्द से ही उक्त प्रकरण में संदेह की निवृत्ति हो जाती है इससे दोनों वाक्यों की संगति हो जाती है, कोई क्षति नहीं होती। ___गुहातपशब्दाम्यामित्यर्थः कृतंपिबतावित्यत्रैवं संशयः किं जीवद्वयं निरूपयति माहोस्वित् जीवब्रह्मणी वेति ? तत्र ब्रह्मप्रकरणस्य सामान्यत्वाद्, यस्तु विज्ञानवान् भवतीत्यग्रे विद्वदविद्वतोर्वक्तव्यत्वात् तदर्थमुभयोः प्रथमं निर्देश उचितः । मंत्रेऽपि, ऋतं स्वर्गापवर्गलक्षणं सुखम् । मार्गद्वयस्यापि विहितत्वात् सुकृतलोकत्वम् । गुहातत्त्व विचारो हृदयंवा । जात्यपेक्षया त्वेकवचनम् । परमपराद्धं सत्यलोकः तत्रोभयो गात् । मविद्ययापिहित प्रकाशत्वादविदुषश्छायात्वम् । ब्रह्मज्ञानेनातिप्रकाशत्वादातपत्वं विदुषः । अत एव विदुषः स्वरूप"ह्मविदो वदंति, पंचाग्नया स्त्रिणाकेताश्चेतरम् । इन्द्रियमनसोस्त्वचेतनत्वान्न वाक्यार्थ संगतिः । वाक्यार्थयोगे हि विशेषण निर्णयः । तस्माद्बद्धमुक्त जीवपरतयोपपन्नत्वात् तत्प्रकरणपाठान्न ब्रह्मवाक्यम् इति । गुह आतप शब्दों से ही सब कुछ स्पष्ट हो जाता है । "ऋतं पिबन्तो" में ही संशय होता है कि इसमें दो प्रकार के जीवों का वर्णन है अथवा जीव और ब्रह्म का है ? ब्रह्म के सामान्य रूप से वर्णन होने से तथा "जो विज्ञान वान होता है" इस वाक्य के प्रागे विद्वान और अविद्वान का उल्लेख होने से तो दो जीवों का वर्णन ही समझ में आता हैं । मंत्र में भी, स्वर्ग और अपवर्ग सुख के बोधक, ऋत शब्द का प्रयोग किया गया है । कर्म और ज्ञान दोनों ही
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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