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________________ ऐसा उपनिषद् वाक्य है कि-"जैसे ब्रीहि, यव श्यामक या श्यामाक तंडुल हैं वैसे ही बीज रूप से यह अन्तर्यामी पुरुष हिरण्मय है" इस पर संशय होता है कि यह हिरण्मय पुरुष जीव है या ब्रह्म? यदि प्रकरण के उपक्रम की श्रेष्ठता माने तब तो जीव समझ में आता है और यदि उपसंहार की श्रेष्ठता माने तो ब्रह्म समझ में आता है। पूर्व भीमांसा के अनुसार तो उपक्रम प्रादि समस्त के अनुसार वाक्य की एकार्थता होती है उसे ही श्रेष्ठ मानते हैं । उक्त प्रकरण में चार प्रकार के भूत समुदाय के निरूपण के लिए जीव के ही सूक्ष्मतम रूप का हृदयान्तवर्ती रूप से प्रतिपादन किया गया है इसकी इस प्रकार की उपासना के फलस्वरूप हिरण्मयता प्राप्त होती है यही दिखलाया गया है । इस प्रकार की भासमानता ब्रह्म की मानना संगत नहीं है, यह तो जीव का प्रतिपादक वाक्य ही है। इति प्राप्ते उच्यते-शब्दविशेषात् । हिरण्मयः पुरुषो न जीवस्य फलमपि, तत्प्राप्तेरेव फलत्वात् । नाप्ययंनियमस्तस्यामेव मूत्तौलय इति । प्रतः शब्देनैव विशेषस्योक्तत्वान्न हिरण्मय. पुरुषो जीवः । उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से शब्द विशेषात् सूत्र प्रस्तुत करते हैं । हिरण्मय की प्रानन्दमयता अन्यान्य प्रकरणों में बतलाई गई है और उसे ही प्राप्य कहा गया है वही उसकी फलता है इसलिए जीव को इस रूप में नहीं माना जा सकता। ऐसा नहीं मान सकते कि जीव उस मानन्दमय ब्रह्म में लीन हो जाता है, क्योंकि ऐसा शास्त्र नियम नहीं है, आनन्दमय प्रकरण में सुस्पष्ट रूप से "ब्रह्मणः सलोकतामाप्नोति, साष्टितां समानलोकतामाप्नोति य एवं वेदेति" इत्यादि वचनों से चतुर्विध मुक्ति का उल्लेख है। इस प्रकार शास्त्र में ब्रह्म का विशेषोल्लेख किया गया है, इसलिए हिरण्मय पुरुष जीव नहीं है। नतु हृदये विद्यमानत्वादभिमान्येव जीव युक्त इति चेत् तत्राह हृदय में स्थित होने से जीव को ही हृदय का अभिमानी देवता मानना संगत होगा, इस तर्क का उत्तर देते हैंस्मृतेश्च ॥१॥२॥६॥ "ईश्वरः सर्व भूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति" इति । ननुसर्ववेदानांयन्निः श्वासत्वं तस्य भगवतो वाक्यं कथं स्मृतिः ? इति-उच्यते "तं त्वोपनिषदं
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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