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________________ है उसमें प्राप्त अप्राप्त का विवेक किया जाय तो ऐसा ही निर्णय होता है । अर्थात् "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" और 'विज्ञानं यज्ञ तनुने" इत्यादि में ब्रह्म और जीव को विज्ञान स्वरूप कहा गया है परन्तु इस विज्ञान स्वरूप को प्राप्त नहीं कहा गया है, अपितु उनके आनन्द धर्म को प्राप्त कहा गया है अतः उस धर्म की ही उपासना माननी चाहिये । ननु प्राप्तव्यतादृशरूप फलाभिप्रायं भविष्यतीति परिहरति । आनन्द स्वरूप को ही प्राप्तव्य कहा गया है, जो कि फलाभिप्राय से हो सकता है, इस संशय का परिहार करते हैं । कर्मकर्तव्यपदेशाच्च ।।२।४॥ एतमितः प्रेत्याभिसंभवितास्मि, इति, यस्य स्यादद्धा न विचिकित्सास्तीति ह स्माह शांडिल्य इत्यग्ने फलवाक्यम् । एतं प्राणशरीररूपं कर्मत्वेन , ध्येयत्वेन, प्राप्यत्वेन च व्यपदिशति । कर्तृत्वेन च शारीरं व्यपदिशति । न च भजनीयरूपाकयने तादृशं फलं सिद्धयतीति चकारार्थः । अधिकरणसंपूर्णत्वद्योतकश्च । "एत मितः प्रेत्याभिसंभवितास्मि' इत्यादि के आगे फलवाक्य है जिसमें प्राण शरीर को कर्मत्व ध्येयत्व और प्राप्यत्व रूप से दिखलाया गया है। जो भजनीय तत्त्व है, उससे एकत्व प्राप्ति की बात कैसे संगत हो सकती है, यही बात चकार के प्रयोग में बतलाई है चकार का प्रयोग अधिकरण की पूर्णता का द्योतक भी है । शब्द विशेषात् ॥२॥५॥ इदमानायते "यथा ब्रीहिर्वायवोवा श्यामाकोवा श्यामाकतण्डुलो व वमयमंतरात्मन् पुरुषो हिरण्मय इति" तत्र संशयः, हिरण्मयः पुरुषः किं जीवः उत ब्रह्मति ? उपक्रम बलीयस्त्वे जीवः, उपसंहार बलीयस्त्वे ब्रह्मेति । यत्रकस्यान्य परत्वेन कार्थता संभवति तद्बलीयस्त्वमिति सिद्धं पूर्वतन्त्रे । तत्र चतुर्विधभूतनिरूपरणार्थ जीवस्य वाराप्रमात्रस्यान्तहृदयें प्रतिपादक मिदं वचनं, फलतो हिरण्मयत्वमिति, नत्वेतादृशाभाससमानत्वंब्रह्मणो युक्तमतो जीव प्रतिपादकमेवेदं वाक्यम् ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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