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________________ १०७ उक्त प्रकरण के पूर्व वाक्य में जड जगत की भी ब्रह्मत्व रूप से उपासना बतलाई गई है, अतः जीव की ही ब्रह्मत्व रूप से उपासना मानना युक्त है, उक्त प्रकरण ब्रह्य परक नहीं हो सकता क्योंकि एक दूसरी शाखा में "विज्ञान ब्रह्म" इत्यादि में उसे स्पष्ट रूप से विज्ञानमय कहा गया है। कार्य कारण का प्रभेद होने से जीव को ही ब्रह्मत्व रूप से उपास्य कहा गया है। इत्येवं प्राप्ते उच्यते, सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात् । अथ खल्वित्यादि ब्रह्मवाक्यमेव, कुतः ? सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात् कुर्वीत इत्युपदेशो न तूपासना । तत्र परमशान्तस्य सर्वस्य जगतो ब्रह्मत्वेनोपासनया शुद्धान्तःकरणस्य सर्ववेदान्तप्रसिद्धब्रह्मोपदेश एव युक्तो मननरूपो, न तु क्वचित् सिद्धस्य जीवस्योपासना। शाखान्तरेत्वने प्रानन्दमयस्य वक्तव्यत्वात्तथायुक्तम् नरिवह तथा, तस्मादानन्द रूप प्राण शरीर रूपो वाक्यार्थः। उक्त संशय पर "सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात" सूत्र प्रस्तुत करते हैं “प्रथ खलु" इत्यादि ब्रह्म वाक्य ही है, क्योंकि सब जगह ब्रह्म को ही अन्तर्यामी रूप से बतलाया गया है । वाक्य का कुर्वीत पद उपदेश परक है उपासना परक नहीं। उसमें समस्त जगत की ब्रह्मत्वरूप से परम शांत शुद्धान्तःकरण की उपासना का उल्लेख है वेदांतों में सर्वत्र ब्रह्मोपदेश की ही मननरूपा उपासना की प्रसिद्धि है, कहीं भी जीव की उपासना की प्रसिद्धि नहीं है । इसी प्रकरण में आग की शाखा में आनन्दमय की उसना बतलाई गई है जिससे यही बात निश्चित होती है, यहां भी पान दमय रूप प्राण शरीर का वर्णन किया गया है। ननु ऋतुमयः पुरुष इति यथासंकल्पमग्निमदेहकथनाल्लोकान्तर भाविफलार्थमन्योपासनैव तु युक्ता, न तु ब्रह्मज्ञानस्य तादृशं फलंयुक्तमित्याशंक्य परिहरति । __"ऋतुमयः पुरुषः' में संकल्पानुसार अग्रिम देः प्राप्ति की बात कही गई है, जिससे लोकान्तरभावी फल की बात सिद्ध होती है, इसलिए जीवोपासना मानना ही युक्त है, ब्रह्मज्ञान का वैसा फल सम्भव नहीं है, इस संशय का परिहार करते हैं
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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