SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैसा ही मरने के बाद होता है, वह मनोमय प्राण शरीर से कर्म करता है" इत्यादि । इस वाक्य के उपक्रम में "सर्व खलु" इत्यादि से समस्त जगत के ब्रह्मत्व को बतलाने के लिए "तज्जला नि" से समस्त विशेषण को हेतुरूप से बतलाकर, तत्त्वरूप से उपासना का निर्देश किया गया है । न चायं शमविधिः, वाक्याथै लक्षणा प्रसंगात्कारणत्वेन सामान्यत एवं सिद्धत्वाच्च । अतः सर्व जगतो ब्रह्मत्वेनोपासनमुक्तम् । इदमेव पुराणादिषु विराट्त्वेनोपासनम् । अतः परमग्रिमवाक्यार्थे संदेहः, क्रतुं कुर्वीतेति, ऋतु धर्मो यज्ञ इति यावत् । तस्य स्वरूपं मनोमयः प्राणशरीर इति । इस प्रकरण में शमविधि का उल्लेख नहीं है, ऐसा मानने में वाक्यार्थ में लक्षणा करनी पड़ेगी । कारण रूप से मानना ही सामान्य सिद्ध अर्थ है । यही मानना समीचीन है कि समस्त जगत की ब्रह्मत्व रूप से उपासना बतलाई गई है। पुराणादि में इस जगत की विराट रूप से उपासना बतलाई गई है। इसका रहस्य अग्रिम वाक्यार्थ में स्पष्ट हो जायगा। इस पर "ऋतुं कुर्वीत्" इत्यादि में • तु धर्म यज्ञार्थक है ऐसा संदेह प्रस्तुत होता है, उसका स्वरूप मनोमय प्राण शरीर कहा जाता है। उपासना प्रकरणत्वादुपासनं वेषा, तत्र मनोमय इति प्रमाणभूतों वेद उक्तः । प्राण शरीर इति कार्यकारणयोरभेदोपचारः । अग्ने सत्य संकल्पादि धर्मवचनात्, किमयं विज्ञानमयो जोवो ब्रह्मत्वेनोपास्य, उत ब्रह्म वान्तर्यामी, यः पुराणेषु सूक्ष्म उक्तः । यह उपासना का प्रकरण है अतः उपासना का ही वर्णन है, वह भी मनोमय उपासना का है, जिसके वेद प्रमाण हैं । "प्राण शरीर में कार्य कारण का अभेदोपचार है। आगे के प्रकरण में उपास्य के सत्यसंकल्प आदि धर्मों का उल्लेख किया गया है, इस पर संदेह होता है किविज्ञानमय जीव को ब्रह्मत्व रूप से उपास्य कहा गया है अथवा अन्तर्यामी रूप से ब्रह्म का उल्लेख किया गया है जिसे कि पुराणों में सूक्ष्म कहा गया है। तत्र पूर्व वाक्ये जडस्य जगतो ब्रह्मत्वेनोपासनस्योक्तत्वाज्जीवस्यापि ब्रह्मत्वेनोपासनमेव युक्त, नत्वाहत्यव ब्रह्मवाक्यवक्तुमर्हति । विज्ञानं ब्रह्म चेद्वेदेति शाखान्तरे स्पष्टत्वाच्च तस्मात् कार्यकारणयोरभेदाज्जीव एव ब्रह्मत्वेनोपास्यः ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy