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________________ ७६ वह आनंदमय आत्मा को प्राप्त करता है" ऐसा फल बतलाया गया है । यदि सूर्य में विद्यमान पुरुष को ब्रह्म नहीं मानते तो, यह फलश्रुति संगत नहीं होती, ऐसा विचार होता है। उधर हिरण्मय शब्द विकारवाची ही प्रतीत होता है, क्योंकि - केशनख श्रादि शारीरिक विकारों का उस पुरुष के लिए उल्लेख है, ये केश नख आदि बिना शरीर के दो हो ही नहीं सकते, इससे आधिदैविक आदि वचन का बाध हो जाता है । अतः सर्वथा तच्छरीरमिति मंतव्यम्, चाक्ष ुषत्वाच्च इन्द्रियवत्वं च श्रूयते । यथा कप्यासं पुंडरीकमेवम क्षिणी तस्य इति, कपेरास श्रासनम्, आरक्त तस्यासनं भवति इति, असभ्य तुल्यता च । अतो देहेन्द्रिययोविद्यमानत्वाज्जीवः कश्चिदधिकारी सूर्यमंडलस्थ इति गम्यते, फलं तत्सायुज्य द्वारेति । प्रथोच्येत एष सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदित इति, अपहतपाप्मत्वादि धर्मश्रवणात् पूर्व दोषस्यापि विद्यमानत्वात् ब्रह्म एव केनचिन्निमित्तेन शरीर परिग्रह इति । तस्य च शरीरस्य कर्मजन् मत्वाभावादपहतपाप्म त्वादि संगच्छते । शरीरवदिन्द्रियस्यापि परिग्रहः वर्णमात्र परिग्रहान्नासभ्यता । स्थावरापेक्षया जंगमस्यो - त्कृष्टत्वात् स्थावरावयवो मानवज्जंगमावयवोपमानं स्थावरस्यापीति सर्वब्रह्मभावाय श्रुत्युक्तत्वाच्च तस्माद् ब्रह्म एवेदं शरीरम् । इत्येव प्राप्त उच्यते- श्रादित्य पुरुष शरीर का तो मानना ही चाहिए क्योंकि साक्षात्कार होता है, तथा उसकी इन्द्रियों का भी वर्णन मिलता है । बन्दर के लाल आसन की तरह जो नेत्रों की उपमा दी गई जो कि असभ्य समता है, उससे तो ब्रह्म की शरीरता समझ में नहीं आती । देह इन्द्रियाँ हैं इसलिए कोई विशेष अधिकारी जीव की ही सूर्य मंडल में स्थिति हो सकती है, उम्र पुरुष सायुज्य से फलावाप्ति होती है । इस पर पूर्व पक्ष वालों का कथन है कि -- " वह सभी पापों से रहित है" ऐसा जो आदित्य पुरुष का वर्णन मिलता है उससे तो परमात्मा की ही प्रतीति होती है, क्योंकि परमात्मा के ही निष्पापता प्रादि गुणों का उल्लेख मिलता है, केशनख आदि विकृतियों को किसी कारण विशेष से ही परमात्मा ने स्वीकारा है, परमात्मा का शरीर कर्मजन्य संस्कारों से तो होता नहीं, - इसलिए उसी में निष्पापता श्रादि धर्मो की संगति भी होती है । जैसा वह
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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