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________________ ७८ होगा ] अंतः स्थित परमात्मा जीव के अनुरोधानुसार उसके कल्याण के लिए हंस रूप में प्रकट हो गए ऐसा मानने से ठीक होगा । ६ अधिकरण अन्तस्तद्धर्मोपदेशात् ।१।१।१६।। "थ य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते, हिरण्यश्मश्रु हिरण्यकेशः, आखात सर्व एव स सुवर्णस्तस्य यथा कप्यासं पुंडरीकमेवमक्षिरणी तस्योंदिति नाम स एष सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदितः, उदेति हवै सर्वेभ्यः पाप्मभ्यो य एवं वेदेत्याधिदैवतमथाध्यात्ममप्यथ य एषोऽन्तरक्षिणि पुरुषो दृश्यते" इत्यादि । तत्र संशयः, किं श्रधिष्ठातृ देवताशरीरम् ग्राहोस्वित् परब्रह्मति, ब्रह्मणो वा शरीरम् ? इति तदर्थमिदं विचार्यते, हिरण्मयशब्दः स्वर्णविकार वाची, आहोस्वित् प्रकाशसाम्येनानंदवाची ? इति "ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्" इत्युपक्रम्य आनंदमयस्य फलत्वमुक्तव। द्वितीयोपाख्याने - " स यश्चायं पुरुष यश्चासावादित्ये स एकः स य एवं विदिति साधनस्यानंदमयमात्मानमुपसंक्रम्य" इति फलं श्रुतम् । तत्र सवितरि विद्यमानस्याब्रह्मत्वे फलं नोपपद्यत इति विचारारंभः तत्र हिरण्मय शब्दो विकारवाची, केशनखादयश्चोच्यन्ते शरीर धर्माः मृता वा एषा त्वगमेध्या यत् केशश्मश्रु इति शरीरमन्तरा नोपपद्यतें परिच्छेदश्चाधिदैविका दिवचनं च बाधकम् । छांदोग्य में वर्णन है कि - " इस आदित्य मंडल में जो हिरण्मय पुरुष खता है जो कि हिरण्मयश्मश्रु केशवाला है तथा नखसिख सुवर्णमय है, तथा रक्त कमल के समान नेत्रों वाला है उसका नाम पापों से मुक्त है उस निष्पाप को जो जानता है वह जाता है । वही अधिदेवत और अध्यात्म इन नेत्रों में दीखता है" इत्यादि । "उत्" है, वह समस्त भी पापों से मुक्त हो इस पर संशय होता है कि - यह अधिष्ठातृ देवता के शरीर का वर्णन है अथवा परब्रह्म का वर्णन है अथवा ब्रह्म के शरीर का वर्णन है ? साथ ही यह भी विचार उठता है कि प्रसंग में उल्लिखित हिरण्मय शब्द विकारवाची है अथवा प्रकाश साम्य होने से आनंदवाची है ? " ब्रह्म विदाप्नोति स्म " ऐसा उपक्रम करके, आनंदमय का फलत्व बतलाकर द्वितीय उपाख्यान सें. "जो यह पुरुष है तथा जो आदित्य में है वह एक है, ऐसा जो जानता है
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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