SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुदुर्लभः प्रशान्तारमा कोटिष्वपि महामुने ।। तस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनी वै मदात्मनः । न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह ॥" इत्यादि वाक्यैः एतदेवाह । गुहायां हृदयाकाशे यदाविर्भूतं परमं व्योमाक्षरात्मकं व्यापि वैकुण्ठं तस्य पुरुषोत्तमगृहरूपत्वात् तत्र निहितं स्थापित मिव वर्तमानं यो वेद स भक्तो ब्रह्मणा नित्याविकृतरूपेण विपश्चिता, विविधं पश्यच्चित्त्वं हि विपश्चित्त्वम् । पृषोदरादित्वात् पश्यच्छब्दावयवस्य लोपं कृत्वा व्युत्पादितो विपश्चिच्छब्दः । तेन विविधभोगचतुरेण सह सर्वान् कामानश्नुत इत्यर्थः, एतेन परप्राप्ति पदार्थ उक्तो भवति । शुद्ध पुष्टिमार्गीयत्वादस्य भक्तस्य स्वातंत्र्यं भोग उच्यते । सहभावोक्तया ब्रह्मणो गौणत्वम्, अतएव भक्ताधीनत्वं भगवतः स्मृतिष्वप्युच्यते-"अहं भक्तपराधीनः, वशीकुर्वन्ति मां भक्तया" इत्यादिवाक्यैः। . ___ "मैं एकमात्र भक्ति से ही ग्राह्य हूँ, मै वेदों से प्राप्त नहीं हूँ" इत्यादि स्मृति भी उक्त बात की पुष्टि करती है । ब्रह्मवेत्ता ज्ञानमागियों को उक्त प्रकार की प्राप्ति नहीं होती, "मुक्तानामपि सिद्धानां" इत्यादि में ऐसा स्पष्ट कहा गया है । हृदयाकाश की गुहा में आविर्भूत परमव्योम रूपी अक्षर वैकुण्ठ, पुरुषोत्तम ब्रह्म का गृह है, उसमें निहित चिन्मय जीव परमात्मा से संसक्त होने से नित्य अविकृत रूप से विपश्चित् परमात्मा के साथ विद्यमान रहता है । विविध रूपों से देखने की शक्ति को ही विपश्चितत्व कहते हैं। पृषोदरादि में गण्य होने से “पश्यत्" शब्दावयव का लोप करके विपश्चित् शब्द बना है । ऐसा अर्थ मानने से उक्त वाक्य का तात्पर्य होता है कि वह जीव चतुरता के साथ अनेक भोगों और कामनाओं को प्राप्त करता है । इसे ही पर प्राप्ति पदार्थ कहा गया है । शुद्ध पुष्टिमार्गीय होने से इसे भक्त का भोग स्वातंत्र्य कहते हैं । शुद्ध ब्रह्म का साहचर्य होने से जीव के लिए गौण ब्रह्म का प्रयोग होता है, भगवान की भक्ताधीनता "मैं भक्तों के अधीन हूँ, मुझे भक्ति से वशीभूत करते हैं" इत्यादि वाक्यों से सिद्ध है । यद्यप्यश, भोजन इति धातोरश्नातीत्येवं रूपं भवत्यशूङ व्याप्ताविति धातोर्भवत्यश्नुत इति रूपं विकरणभेदात् पदभेदाच्च । तथाप्यत्राश भोजन इति धातोरेव प्रयोग इति ज्ञायते, तथाहि अत्राशनक्रियायां ब्रह्मणा सहभाव उच्यते, तथा च व्याप्त्यर्थकत्वे ब्रह्मणा सह भूतान् कामान् व्याप्नोतोन्यर्थो भवत्यथवा ब्रह्मणा सहभूतः स जीवः कामान् व्याप्नोतीति । एतौ त्वनुपपन्नौ ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy