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________________ ५० अक्षर ब्रह्म में प्रानंदात्मकता होते हुए भी, उसकी परिच्छिन्नता के कारण उसमें परमफलता नहीं है । अानंद की अखंडता ही उसकी परमफलता की निर्णायक है । प्रानंद धर्म से युक्त परमानंद ही "अनंत" शब्द से अभिप्रेत है। "ब्रह्म सत्य विज्ञान और आनंद रूप है, वह सच्चिदानंद विग्रह है" इत्यादि श्रुति के ही समान स्वरूप वाली श्रुति “सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म" में सत्य और ज्ञान के साथ प्रयुक्त "अनंत" पद आनंद अर्थ का ही वाचक सिद्ध होना है, इसीलिए "आनंद" पद का स्पष्टोल्लेख नहीं है । "यो वेद" इत्यादि वेदन का प्रतिपादक है। "यह आत्मा प्रवचन से लभ्य नहीं है, मेधा या स्वाध्याय से भी लभ्य नहीं है, जिसे यह वरण करता है, उसी से लभ्य है" इत्यादि में प्रानदमय को अन्य साधनों से अप्राप्य बतलाया गया है। __ एवं सति श्रतिद्वयविरोधपरिहारायाक्षरब्रह्मज्ञानेनाविद्यानिवृत्या प्राकृतधर्मराहित्येन शुद्धत्वसंपादनेन पुरुषोत्तमप्राप्तौ स्वरूपयोग्यता संपाद्यते । तादृशे जीवे स्वीयत्वेन वरणे भक्तिभावात् सहकारियोग्यतासंपत्त्या पुरुषोत्तमप्राप्तिर्भवतीति निर्णीयते । तदेव गुहायां परमव्योमाविर्भावः । “परो मीयते दृश्यतेऽनेन" इति तथा, ज्ञानमार्गीयजीवज्ञयप्रकारकाद् वैशिष्ट्येनापि तथा । परमव्योम्नोऽत्यलौकिकत्वज्ञापनायालौकिकः प्रयोगः कृतः। . इस प्रकार, दोनों श्रुतियों के परिहार से यह निर्णय होता है कि अक्षर ब्रह्म ज्ञान से अविद्या निवृत्ति, अन्तःकरण की शुद्धि होकर पर ब्रह्म पुरुषोत्तम की प्राप्ति की अईता होती है ।। वैसे शुद्धान्तःकरण जीव में आत्मीय रूप से वरण करने के लिए परमात्मा भक्तिभाव समन्वित सहकारी योग्यता प्रदान करते हैं, जिसके फलस्वरूप पुरुषोत्तम प्राप्ति होती है। तभी अंतःकरण की गुहा में स्थित परमव्योम में परमात्मस्वरूप का प्रादुर्भाव होता है । “परो मीयते दृश्यतेऽनेन इति परमम्” इस व्युत्पत्ति से ऐसा ही अर्थ प्रकट होता है । ज्ञानमार्गीय जीव ज्ञेय परमात्मा के प्रकार में वैशिष्ट्य होने से वैसी उपलब्धि नहीं कर पाते। परमव्योम की प्रति अलौकिक्ता दिखलाने के लिए ही “परम्" ऐसा अलौकिक प्रयोग किया गया है। . "भक्तयाऽहमेकम ग्राह्यो नाहं वेदैः" इत्युपक्रम्य "भक्तया वनव्यया शक्यः" इत्यादि स्मृतिरप्येवमेव संगच्छतेः । अन्यथा ज्ञानमार्गिणामपि ब्रह्मविदां परप्राप्तिः- स्याल, स्वेत्रम। "मुक्तानामपि - सिद्धानां नारायणपरायः
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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