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________________ YE अर्थ के अनुसार तो यह सत् शब्द का समानाधिकरण होने से निर्गुणता का बोधक है। (शंका) प्रलय सम्बन्धी प्रसंग में सुषुप्ति की कैसी चर्चा ? (समाधान) मोक्ष के अतिरित जागृति और सुषुप्तावस्था में जैसा जागतिक कर्मों का सम्बन्ध रहता है, वैसा सुषुप्ति और प्रलय में नहीं रहता, इस भाव को दिखलाने के लिए यहाँ सुषुप्ति की चर्चा की गई है [जागृत और स्वप्न की तरह केवल वासना ही सुषुप्ति में रहती है, अन्यथा यह प्रलय के समान अवस्था है । सुषुप्ति और प्रलय में परमात्मा के आधार पर जीव रहता है इसलिए परमात्मा को व्यवहारातीत नहीं कह सकते। मुक्तिवाक्यानामाह-अब मुक्ति वाक्यों की ब्रह्म परकता बतलाते हैंगतिसामान्यात् ।१।१६॥ गती सामान्यात्, गतिः मोक्षः समानस्य भावः सामान्यम्, मोक्षे सर्वस्यापि भगवता तुल्यत्वात् । एवं हि श्रू यते “यथा सर्वासामपां समुद्रमेकायनम्" इत्युपक्रम्य "वागेकायनम्" इति दृष्टान्तार्थ निरूप्य "न यथा सैन्धवखिल्य उदके प्रास्त" इत्यादिना लयदृष्टान्तं निरूप्य "न प्रेत्य संज्ञास्ति" इति प्रतिपाद्य, तन्निरूपणार्थम् “यत्र हि द्व तमिव भवति तदितर इतरम्' इत्यादिना सर्वस्य शुद्धब्रह्मवं प्रदर्शितम् । प्रादिमध्यावसानेषु शुद्धब्रह्मण एवोपादानात् । सर्वेषां वेदांतानों ब्रह्मसमन्वय उचित इति । : . . गति में अर्थात् मोक्षावस्था में ब्रह्म और जीव का समान भाव होने से भी मुख्य ब्रह्म का अस्तित्व सिद्ध होता है । मोक्ष दशा में सभी जीव भगवान से तुल्यता प्राप्त करते हैं । ऐसा ही श्रति प्रमाण भी है-"जैसे सारे जल समुद्र से एकता प्राप्त करते हैं" इत्यादि से लयाधिकरण का दृष्टांत देकर “वह नमक के समान जल में घुल जाता है" इत्यादि से लय दृष्टान्त का निरूपण करके "उसकी मरणोत्तर कोई संज्ञा नहीं होती" इत्यादि से मोक्ष का प्रतिपादन करके उसके निरूपण के लिए "जहाँ वह द्वत की तरह भिन्न भिन्न होता है" इत्यादि से समस्त प्रपंच के शुद्ध ब्रह्मत्व का उल्लेख किया गया है । इस प्रकार समस्त वेदांत वाक्यों का ब्रह्म समन्वय उचित ही है, क्योंकि उनमें प्रादि, मध्य और अवसान में शुद्ध ब्रह्म का ही उपादान रूप से उल्लेख है। सभी वेदांतों का ब्रह्म समन्वय उचित ही है। ... ... श्रु तत्वाच्च ।१।१॥१०॥ "पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशि:
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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