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________________ ४५ परब्रह्म के अनेक रूप हैं इसलिए अनेक हेतु प्रस्तुत किये गए हैं, जैसे कि विविध पक्वान्नों से भोजन में तृप्ति होती है, वैसे ही परमात्मा के अनेक अलौकिक धर्मों के प्रस्ताव से तृप्ति होती है । आत्मशब्दात्, तनिष्ठस्य मोक्षोपदेशात् और हेयत्वावचनाच्च, इन तीन सूत्रों में परब्रह्म के निर्गुण स्वरूपपरक और कार्यपरक हेतु बतलाये गये हैं, कार्य के भी विधि और निषेध परक दो भेद • दिखलाये गये हैं। आगे भी ऐसा ही विवेचन प्रस्तुत करते हैं । ऊपर सृष्टि वाक्यों की ईक्षणहेतुक भगवत्परता कही गई, अब प्रलय वाक्यों की भगवत्परता बतलाते हैं। स्वाप्ययात् ११८॥ ब्रह्मणो न सर्वव्यवहारातीतत्वम्, कुतः ? स्वाप्ययात् स्वस्मिन् अप्ययात्, तत्र चित्प्रकरणत्वाज्जीवस्य चोच्यते, एवं हि श्रूयते-“यत्रतत् पुरुषः स्वपिति नाम सता सौम्य तदा संपन्नो भवति तस्मादेनं स्वपिति इत्याचक्षते । स्वं पपीतो भवति इति ।"स्वपितीति न क्रियापदं, किन्तु जीवस्य नाम, तदैव स्वपितीति नामत्वं यदा सता संपद्यते । सति स्वशब्दवाच्ये अपीति लयं प्राप्नोतीत्यर्थः । "अहरहर्जीवो ब्रह्म संपद्य ततो बलायधिष्ठानं प्राप्य पुनर्नव इव समायाति", वासनाशेषात्, स्वशब्देन च भेदः । अर्थतः सच्छब्दसामानाधिकरण्यानिर्गुणत्वम् । ननु प्रलये वक्तव्ये कथं सुषुप्तिः ? मोक्षातिरिक्तदशायां तथा कर्मसंबंधाभावादिति ब्रूमः । . ब्रह्म समस्त व्यवहारों से अतीत नहीं है, उसे अपने में ही लीन बतलाया गया है, चित् स्वरूप होने से चित् सधर्मी जीव का लय भी उसी में बतलाया गया है, जैसी कि श्रुति है-“हे सौम्य ! यह जीव स्वपिति नाम वाला है, जब यह सद्भाव से संपन्न हो जाता है तभी इसे स्वपिति कहते हैं" -अर्थात् अपने में ही लीन हो जाता है। स्वपिति शब्द क्रियापद नहीं है, अपितु जीव नामवाची है, जीव तभी स्वपिति नाम वाला होता है जब सद्भाव संपन्न होता है, अर्थात् स्व शब्द वाच्य सत् में लीन हो जाता है [सुषुप्ति दो प्रकार की होती है, एक तद्भाव (शुद्ध चैतन्य भाव) सुषुप्ति, दूसरी नाडियों में सुषुप्ति] ।“जीवात्मा प्रतिदिन ब्रह्म को प्राप्त कर शारीरिक बल से पुनः नए की तरह लौट आता है", क्योंकि उसकी वासना शेष रह जाती है [यह नाडियों की दैनिक सुषुप्तावस्था का स्वरूप है] 1 स्व शब्द प्रात्मवाची होने से जीव प्रौर परमात्मा की अभिन्नता का द्योतक है । वैसे
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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