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दक्षिण के अन्य जैन-तीर्थ कहते है कि जिस दिन इस मदिर की प्रतिष्ठा हुई, उसी दिन होय्सल नरेश विष्णुवर्द्धन की एक युद्ध मे विजय हुई
और उसी दिन उनके पुत्र भी उत्पन्न हुआ । इस हर्षोपलक्ष में विष्णुवर्द्धन ने दान दिया और भगवान पार्श्वनाथ के दर्शन करके उसका नाम 'विजयपार्श्वनाथ' रक्खा । ।
यहा पर ऐसे ही दो मन्दिर और है । मध्य के मन्दिर मे प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव की मूर्ति है । यह मन्दिर सन् ११३८ में हेगडे मल्लिमाया ने वनवाया था। तृतीय मन्दिर सन् १२०४ ईस्वी का बना हुआ है। इसमे १४ फुट ऊची भगवान् शातिनाथ की खड्गासन प्रतिमा है । यहां कई शिलालेख भी है। एक जैन मुनि का अपने शिष्य को उपदेश देने का दृश्य बडा ही प्रभावोत्पादक है । मूर्ति के दोनो ओर मस्तकाभिषेक करने के लिए नि श्रेणि (जीना) बनी हुई ह, मदिर के सामने मानस्तम्भ पर गोम्मटेश्वर की मूर्ति है।
हलेबिड मे देखने योग्य एक होय्सलेश्वर मदिर भी है। जितने स्थान मे चतुर कारीगर ने यह मन्दिर बनाया, समस्त ससार मे इतने स्थान में इससे अधिक कारीगरी का मन्दिर अन्यत्र नही । इतिहासज्ञो का अनुमान है, कि इस मन्दिर के निर्माण में ८६ वर्ष लगे और फिर भी यह अधूरा रहा । उसका शिखर अभी तक पूरा नहीं हुआ । यह भी शिल्पकला का वेजोड नमूना है । मन्दिर की बाहरी दीवारो पर हाथी, सिंह और नाना प्रकार के पक्षी, देवी-देवता तथा ७०० फुट लम्बाई मे रामायण के दृश्य दिखलाए गये हैं।