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________________ ( ५३ ) अब मैं बताऊं जिस तरहसे ज्ञानहोता है पांच इन्द्रिय और छठा मन इनके बलसे और इनके आवरणरूप अज्ञान के क्षयोपस्म होने से मति श्रुति ज्ञानके प्रकट होनेसे अर्थात् गुरु (उस्ताद) के शब्द श्रोत्र (कान) द्वारा सुनने से श्रुतिज्ञान होता है कि (क) (ख) इत्यादि और चक्षुः(नेत्र) द्वारा अक्षरका रूप देखके मन द्वारा पहचाने तव मति ज्ञान होता है कि यह (क) (ख) इस विधि से ज्ञान होता है और इसी तरह गुरु के मुख से शास्त्रद्वारा सुनके भगवान् का स्वरूप प्रतीत (मालूम) होता है कि महावीर स्वामीजी की ७ हाथकी ऊञ्ची काया थी स्वर्ण वर्ण था सिंह लक्षण था अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय गुण थे इत्यादि का जानकार होजाता है और वही मूर्तिको देखके पहचान सकता है कि यह महा
SR No.010483
Book TitleSatyartha Chandrodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherLalameharchandra Lakshmandas Shravak
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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