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( १२ ) तीर्थों) का मिल के धर्म विचार का करना उसे यात्रा मानते हैं अर्थात् पूर्वोक्त साधु गुणों का धारक पुरुष साधु १ तैसे ही पूर्वोक्त साधु गणोंकी धारिका स्त्री साध्वी २ पूर्वोक्त श्रावक गुणोंका धारक पुरुष श्रावक ३ पूर्वोक्त श्रावक गुणों की धारिका स्त्री श्राविका ४ इनको चतुविध संघ तीर्थ कहते हैं इनका परस्पर धर्म प्रीति से मिल कर धर्म का निश्चय करना उसे यात्रा कहते हैं और धर्म के निश्चय करने के लिये प्रश्नोत्तर कर के धर्म रूपी लाभ उठाने वाले (सत्य सन्तोष हासिल करने वालों) को यात्री कहते हैं अर्थात् जिस देश काल में जिस पुरुष को सत् संगतादि करके आत्मज्ञान का लाभ हो वह तीर्थ । यथा चाणक्य नीति दर्पणे अध्याय १२ श्लोक ८ में :