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( १६३ ) जी और उपाध्याय श्री यशो विजय जीने बहुत क्रिया कटन की और वैराग रंग में रंगे गये तव श्रीमघ उनको संवेगी कहनेलगे इति । वस सिद्ध हुआ कि विक्रमी १७०० के साल में संवेग मत निकला पहिले नहीं था और इनके बड़ोंको पहिले वैरागभीनहीं होगा क्योकिधन विजय चतुर्थ स्तुति निर्णय प्रकाश शकोद्धार पुस्तक संवत् १९४६ में अहमदा बादकीछपी में प्रस्तावना पृष्ट२४ पं०२०मीसे पृष्ठ २५वीं तक लिखता है कि आत्माराम अपने गरुओं के विपय मंलिवताह कि पहले परिग्रह धारीमहा व्रत रहितथे फिर पीछे निग्रंथपना अगीकार किया. परन्तकिली संयमीके पास चारित्रापस पत (फरकेदिक्षा)लीनी नहीं इनसे शास्त्रान: सार इन्हें संयमीकहना योग्यनहीं ओरआत्मा