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( ७. ) ओर सूत्रार्थ के देख त्यां ऐसाभी संभवहोता है कि वह देवलोकादिकों में किसी देव की मूर्तियेहों क्योंकि उवाईजी सूत्र में श्रीमहावीर तीर्थंकर देवजीके शरीरका शिखासे नख तक व
न चलाहै वहां भगवान्के मंशु अर्थात् श्मश्रु (दाढी मूछे) चली हैं और चुंचुवे नहीं चले हैं
और सूत्रराय प्रश्नीजीमें जिन पडिमाका नख से शिखा तक वर्णन चला है वहां प्रतिमाके चुंचुये चले हैं और दाड़ी मुच्छां नहीं चलीहैं और जो जैनमतभेसे पूर्वोक्त पाषाणापासक निकले हं सो ये भी जिन पडिमा (मूर्तिये) बनवाते हैं उन मूर्तियोंके भी दाढ़ी मूछ का आकार नहीं बनवाते हैं इत्यर्थः और नमात्थुणं के पाठ वि. षय में तर्क करोगे तो उत्तर यह है, कि वह पूर्वक भावले मालूम होताहै कि देवता परम्परा