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६४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
वृत्ति मे अमोधवृत्तिको विशालकाय (अतिमहती) तथा शाकटायन की स्पोपत्रवृत्ति बताया है।
अमोधवृत्ति के प्रार+भ मे अन्यावतार के विषय मे किटायन ने लिखा है "परिपूर्णमल्पग्रन्थ लघूपाय शब्दानुशासन शास्त्रमिद महाश्रमणसघाधिपतिभंगवानाचार्य शाकटायन प्रारभते ।"
अमोघवृत्ति के समस्त पुष्पिका पाक्यो मे शाकटायन का उल्लेख इस प्रकार आया है
તિ ધૃતવનિલેશીયારાર્થનાટાથનતી શવ્વાનુશાસને અમોધવૃત્તી” यहा कृती का अन्वय शब्दानुशासन तथा अमोधवृत्ति दोनो से है । डा० विरखे का सुझाव है कि यदि इन पुष्पिका वाक्यो मे "शब्दानुशासने अमोधवृत्ती" के स्थान पर "शदानुशासनामोधवृत्ती" पा० हो तो पुष्पिकावाक्य मे जो अस्प८८ता है, वह दूर हो जाती है। उस स्थिति मे तनिक भी सन्देह की गुजाइश नही रहती कि यह वृत्ति स्वय सूत्रवार की है। चिन्तामणिकार ने अपनी टीका मे शाकटायन के विषय मे लिखा है
इण्टिनष्ट। न वक्तव्य वक्तव्य सूत्रत पृथक् ।। सख्यान नोपसख्यान यस्य शब्दानुशासने ।। इन्द्रचन्द्रादिभि शादयंदुक्त शलक्षणम् ।
तदिहास्ति समस्त च यन्त्रहास्ति न तत्क्वचित् ।। अर्थात् शाकटायन व्याकरण मे इष्टिया पढने की आवश्यकता नहीं है। सूत्रो से । अलग वक्तव्य कुछ नही है। उपसख्यानो की भी आवश्यकता नहीं है। इन्द्र चन्द्र आदि वैयाकरणो ने जो शब्द लक्षण कहा वह सब इस व्याकरण मे मा जाता है । इसमे और जो विशेप है वह अन्यन नही है।
डा० बिरवे की राय मे यक्ष वर्मा का यह कथन इस बात को धोतित करता है कि शाकटायन की अमोघवृत्ति पतजलि के महाभाष्य से विशिष्ट है, क्योकि महाभाष्य मे इष्टिया अनेक वार आयी है। ___ वर्धमान सूरि ने गणरत्नमहोदधि मे शाकटायन के नाम से जो अनेक उल्लेख दिये है वे अमोधवृत्ति मे उपलब्ध है। डा. विरवे ने ऐसे १२४ सन्र्दभो की गणना की है।
आचार्य मलयगिरि ने नन्दिसूत्र की टीका मे अमोधवृत्ति के मगल पच "वीरसभूत ज्योति' इत्यादि को शाक्टायन को स्वोपजवृत्ति बताया है।
इस प्रकार सन्देह की गुजाइश नही दीखती कि अमोघवृत्ति शाकटायन की स्वोपनवृत्ति है।
अमोधवृत्ति की विशेषता बताते हुए चिन्तामणिकार ने लिखा है