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५८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
गुणनन्दीकृत शब्दार्णव ___ आचार्य गुणनन्दि ने जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रो को परिवर्तित और परिवधित करके इस व्याकरण को सागपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है। इसकी रचना वि० स० १०३६ के पूर्व हुई। शब्दार्णवप्रक्रिया के अन्तिम श्लोक मे कहा गया है
सेपा श्रीगुणनन्दिता नितवपु शब्दार्णवे निर्णय,
नावत्या श्रयता विविक्षुमनसा साक्षात् स्वय प्रक्रिया।" इससे ज्ञात होता है कि गुणनन्दी ने जैनेन्द्र के सूत्रो का विस्तार किया और उन पर प्रक्रिया भी लिखी।
गुणनन्दि ने जैनेन्द्र के आधे से अधिक सूत्र वही रखे है । सज्ञाओ और सूत्रो मे अन्तर किया है।
गुणनन्दी नाम के अनेक आचार्य हुए है। एक गुणनन्दी का उल्लेख श्रवणवेलगोल के ४२, ४३ और ४७वें शिलालेखो मे है। उसके अनुसार वे वलाकपिच्छ के शिष्य, गृध्रपिच्छ के प्रशिष्य थे। वे तर्क, व्याकरण तथा साहित्यशास्त्र के निपुण विद्वान थे। उनके पास ३०० शास्त्रपारंगत शिष्य थे। 'कर्णाटकक विचरित' के लेखक ने गुणनन्दी का समय वि० स० ९५७ निश्चित किया है। सोमदेवकृत शब्दार्णवचन्द्रिका
उपर्युक्त शब्दार्णव पर आचार्य सोमदेव ने शब्दार्णवचन्द्रिका नामक एक विस्तृत टीका की रचना की थी। ग्रन्थकार ने स्वयं लिखा है
श्री सोमदेवयतिनिमितमादधाति या नौ
પ્રતીતયુગનન્દ્રિતશદ્વારિ, अर्थात शब्दार्णव मे प्रवेश करने के लिए नौका के समान यह टीका सोमदेव मुनि ने बनाई है।
यह अन्य जनेन्द्रप्रक्रिया नाम से प्रकाशित हुआ है।" ग्रन्थ के अन्त मे गुणनन्दि का उल्लेख निम्नलिखित रूप मे हुआ है
जन्मृगाधिराजो गुणनन्दी भुवि चिर जीयात् ।" __इस उल्लेख के आधार पर इस प्रक्रिया का लेखक गुणनन्दी मानने मे कतिपय विद्वानी को सकोच है। उनका कहना है कि लेखक स्वयं इस प्रकार आत्मप्रशसा नही कर सकता।
इसी अन्य के तीसरे पक्ष मे श्रुतकीति नाम का इस प्रकार उल्लेख है