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५२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
इन छह आचार्यों में से किसी एक का भी कोई व्याकरण अन्य अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। न ही कही इनके वैयाकरण होने का उल्लेख मिलता है। इस लिए मात्र इन उल्लेखो के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा कि इन आचार्यों ने व्याकरण ग्रन्यो की रचना की होगी। उतना अवश्य है कि ये आचार्य पूज्यपाद से पूर्ववर्ती तथा विश्रुत आचार्य हुए है। उनके अन्यो मे व्याकरण के प्रयोगो का जो वैशिष्ट्य मिलता है उससे उनके वैयाकरण होने का प्रमाण मिलता है । पूज्यपाद के इन उल्लेखो मे उक्त आचार्यों के समय निर्णय के लिए एक निश्चत आधार उपलब्ध हो जाता है । जैनेन्द्र व्याकरण के दो पाठ
ऊपर बताया गया है कि उपलब्ध जैन व्याकरण-ग्रन्थो में पूज्यपाद देवनन्दी का जनेन्द्र व्याकरण सर्वप्रथम है। वर्तमान मे इसके दो पाठ मिलते हैं। दोनो पाठो पर अलग-अलग टीका या वृत्ति ग्रन्थ भी उपलब्ध है।
एक सूत्र पाठ के अनुसार जनेन्द्रव्याकरण मे कुल ३००० सूत्र हैं। इन पर आचार्य अभयनन्दीकृत महावृत्ति आचार्य प्रभाचन्द्र कृत भन्दा मोजमास्कर, श्रुतकातिकृत १चवस्तु नाम की प्रक्रिया तथा पडित महा चन्द्रकृत लधु जैनेन्द्र टीका उपलब्ध है।
दूसरे सूत्र पा6 के अनुसार ग्रन्थ मे कुल ३७०० सूत्र हैं । इस पर सोमदेव सूरि कृत शब्दार्णवचन्द्रिका तथा गुणनन्दी कृत प्रक्रिया उपलब्ध है। इस पा० मे ७०० सून अधिक होने के अतिरिक्त शे५ ३००० सून मी पूर्णतया एक जैसे नही है। इस सूत्र पा० के अनेक सूत्र परिवर्तित और परिवर्तित किये गये हैं। सज्ञाओ मे भी भिन्नता है। इतना होने पर भी दोनो मे पर्याप्त समानता है।
जनेन्द्र व्याकरण के सूत्र पाच अध्यायो मे विभक्त है। इस कारण इसे पचाध्यायी भी कहा जाता है।
जनेन्द्र व्याकरण की अनेक विशेषताए हैं, जो उसे पाणिनी व्याकरण से अलग करती है। उदाहरण के लिए
१ जनेन्द्र का सर्वप्रथम सूत्र है सिद्धिरनेकान्तात् ॥१११११।। अर्थात् शब्द की सिद्धि बनेकान्त द्वारा होती है। __ अनेकान्त जैन दर्शन का अन्यतम सिद्धान्त है। इसके द्वारा वस्तु की अनेक धर्मात्मकता का प्रतिपादन किया जाता है। वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। शब्द पुद्गल की पर्याय है। इसलिए वह भी अनन्त धर्मात्मक है। शब्द मे नित्यत्व, अनित्यत्व, उभयत्व, अनुमयत्व आदि अनेक धर्म पाये जाते हैं। ऐसे शब्दो की सिद्धि अनेकान्त मे ही सम्भव है। एकान्त सिद्धान्त से अनेक धर्मविशिष्ट शब्दो का साधुत्व नहीं बताया जा सकता।