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संस्कृत के जैन वैयाकरण एके मूल्याकन
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भी कहा जा सकता है पर है वह एक विशेष दृष्टि । उस दृष्टि से भी जब हम देखते हैं तो सर्व प्रथम हमारा ध्यान जैनेन्द्र पर ही जाता है ।
उपलब्ध जैन व्याकरण ग्रन्थो मे पूज्यपाद देवनन्दी का जैनेन्द्र व्याकरण प्रथम है । देवनन्दी दिगम्बर परम्परा के विश्रुत जैनाचार्य थे। उनके पूज्यपाद तथा जैनेन्द्रबुद्धि नाम भी प्रचलित थे । नन्दीसघ पट्टावली में इसका उल्लेख निम्नप्रकार किया गया है
"यश कीर्तिर्यशोनन्दि देवनन्दी महामति । श्री पूज्यपादापराख्यो गुणनन्दी गुणाकर || "
श्रवणबेलगोल के ४० वे शिलालेख मे देवनन्दी का जिनेन्द्रबुद्धि नाम बताया गया है
"यो देवनन्दि प्रथमाभिधानो बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धि । श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजित पादयुग यदीयम् ॥
इस
इससे ज्ञात होता है कि आचार्य का प्रथम नाम देवनन्दी था, बुद्धि की महत्ता के कारण वह जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये तथा देवो ने उनके चरणो की पूजा की, વ્યારા ઉના નામ પૂન્યપાવ દુબા। નિનેન્દ્રવ્રુદ્ધિ નામ के एक बौद्ध साधु विक्रम की आठवी शती में हुए । उन्होने पाणिनीय व्याकरण की काशिकावृत्ति पर एक न्यास की रचना की थी, जो 'जिनेन्द्रबुद्धिन्यास' के नाम से प्रसिद्ध है । ये जिनेन्द्र बुद्धि पूज्यवाद जिनेन्द्रबुद्धि से भिन्न है | श्रवणबेलगोल के एक अन्य लेख १०८ (२८५) में उनका उल्लेख इस प्रकार है
"जिनवद् वभूव यदनङ्गचापहृत् स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुवर्णित ।" पूज्यपाद अद्भुत प्रतिभा के धनी थे । दर्शन और लक्षणशास्त्र के वे अद्वितीय पण्डित थे ।
प० युधिष्ठिर मीमासक के अनुसार पूज्यपाद के 'अरुणन्महेन्द्रो मयुराम्' उदाहरण मे गुप्तवशीय कुमारगुप्त (४१३-४५५) की मयुरा विजय की ऐतिहासिक घटना सुरक्षित है।' इससे ज्ञात होता है कि पूज्यपाद कुमार गुप्त के समकालीन थे ।
पूज्यपाद ने जैनेन्द्र व्याकरण मे अपने पूर्ववर्ती छह आचार्यों का उल्लेख इस प्रकार किया है
१ गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् ।।१।४।३४।।
२ कुवृषिभृजा यशोभद्रस्य ||२१||
३. राट् भूतवले ( 1३|४|८३ ||
४. राते कृति प्रभाचन्द्रस्य || ४ | ३ | १८० ।। ५. वेत्ते सिद्धसेनस्य ॥५१॥७॥
६ चतुष्टय समन्तभद्रस्य || ५|४|१४० ॥