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४० मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
साहित्य के उल्लेखो का संग्रह करके 'आन द ऐन्द्र स्कूल आफ ग्रामेरियन्स' नामक ग्रन्थ लिखा है।
पूज्यपाद देवनन्दि के जैनेन्द्र व्याकरण को ही ऐन्द्र व्याकरण मानने का भ्रम भी वहुत समय से चलता रहा। यह भ्रम कम से कम सत्रहवी शती जितना पुराना तो है ही। उपाध्याय विनय विजय (स० १६६६) और लक्ष्मीवल्लभ मुनि (१८वी शती) ने जैनेन्द्र को भगवत्प्रणीत बताया है।
इस प्रकार के भ्रम फैलाने के लिए रत्नपि का 'भगवद्वाग्वादिनी' नामक ग्रन्य जिम्मेदार है। रलपि नामक किसी मुनि ने लगभग वि० स० १७६७ मे देवनन्दिकृत जनेन्द्र व्याकरण के उत्तरवर्ती पा० के सूत्रो को तोडमरोड कर उनकी दुख्यिा करके ८०० श्लोक प्रमाण 'भगवद्वावादिनी' नामक ग्रन्थ रचा और उसमे उन्होंने जनेन्द्र व्याकरण का कर्ता साक्षात् भगवान् महावीर को बताया। यही नही इसे महावीर की जीवनी मे इस प्रकार पिरोया कि सामान्य व्यक्ति को उस पर सन्देह भी नही हो सकता।
ऐन्द्र व्याकरण के अतिरिक्त 'क्षपणक व्याकरण' के भी उल्लेख प्राप्त होते है। क्षपणक नामक किसी आचार्य ने इसकी रचना की थी। मवय रक्षित ने अपने 'तन्नप्रदीप' नामक ग्रन्थ मे क्षपणक व्याकरण का एकाधिक बार उल्लेख किया है। एक स्थान पर लिखा है
"अतएव नावमात्मान मन्यते, इतिविग्रहपरत्वादनेन हस्पत्य बाधित्वा अमागमे सति 'नाव मन्ये' इति क्षपणकव्याकरणे
दशितम् ।" (भारतकौमुदी भाग २, पृ० ८६३ की टिप्पणी) तन्नप्रदीप सून ४ १ १५५ मे 'क्षपणकमहान्यास' का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि क्षपणक रचित व्याकरण पर न्यास की भी रचना की गयी होगी। ___ज्योतिविदाभरण' मे विक्रमादित्य राजा की सभा के जिन करलो के नाम उल्लिखित है, उनमे क्षपणक का नाम सर्वश्रेष्ठ है "क्षपणकोऽमरसिंहाइकुवेतालમદ્રવદરનાંસા ક્યાંતો વરાહમિહિરો ફૂપતે સમાયા રત્નાનિ વૈ વરહર્નિવ विक्रमस्या"
क्षपणक रचित व्याकरण, उसका न्यास या उनका कोई अश अभी तक उपलब्ध नही हुआ है।
पर्याप्त प्रमाणो के अभाव मे यह कहना युक्तिसगत नही होगा कि सिद्धसेन दिवाकर का ही दूसरा नाम क्षपणक था।
संस्कृत व्याकरण साहित्य के इतिहास में महर्षि पाणिनि, कात्यायन और पतजलि को मुनिलय के रूप मे प्रतिष्ठा प्राप्त है। उत्तरवर्ती व्याकरण शास्त्रकारो ने इस मुनित्रयी को अत्यन्त आदर के साथ स्मरण किया है।