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________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्याकन ३६ अष्टम स्थान मे आठ कारको का निरूपण किया गया है । अनुयोगदारसूत्र मे तीन वचन, लिंग, काल और पुरुषो का विवेचन मिलता है। इसी ग्रन्थ मे चार, पाच और दस प्रकार की सशानो का उल्लेख आया है। सूत्र १३० मे सात समासो और पाच प्रकार के पदो का कथन किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि संस्कृत मे व्याकरण मन्थो के प्रणयन के पूर्व जैनाचार्यों ने प्राकृत मे व्याकरण ग्रन्यो की रचना की होगी, जो आज उपलब्ध नही हैं। सस्कृत व्याकरण ग्रन्यो मे पाणिनि का अष्टाध्यायी सर्वप्राचीन उपलब्ध व्याकरण है । यद्यपि पाणिनि ने अपने ग्रन्य मे पूर्वज वैयाकरणो का उल्लेख किया है पर आज उनके ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । पाणिनि का समय ईसा पूर्व ५०० से ४०० तक माना जाता है। जैन परम्परा मे सस्कृत व्याकरण ग्रन्थो की रचना कब से आरम्भ हुई, इसका ठीक-ठीक निर्णय करना कठिन है । इस कथन मे आशिक सत्यता प्रतीत होती है कि जब ब्राह्मणो ने शास्त्रो पर अपना सर्वस्व अधिकार कर लिया तव जन विद्वानो को व्याकरण आदि विषय के अपने ग्रन्थ बनाने की प्रेरणा मिली।३ यह कहना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है कि जैन परम्परा मे जव संस्कृत मे ग्रन्थ रचना होने लगी तो आचार्यों ने यह अनुभव किया कि उपलब्ध सस्कृत व्याकरणो से उनका पूरा काम नहीं चल सकता। वे इस बात के लिए भी अत्यधिक जागरूक थे कि तीर्थकरो ने जिस दार्शनिक चिन्ताधारा का प्ररूपण किया था, उसका उपयोग व्याकरण शास्त्र मे कैसे किया जाये । इसलिए उन्होने स्वतन्त्र व्याकरण अन्थो की रचना की। पर शब्दप्रामृत या सहपाहुड के विषय मे कहा गया है कि परम्परानुसार ऐसा ज्ञात होता है कि इसकी रचना सस्कृत में की गयी थी । शब्दप्रामृत पूर्व ग्रन्थो का अग है । 'पूर्व' भगवान् पाव की परम्परा के माने जाते हैं। पार्श्वनाथ का समय भगवान महावीर से दो सौ पचास वर्ष पूर्व माना जाता है । महावीर का समय ईसा पूर्व छठी शताव्दी है। इससे ज्ञात होता है कि पूर्वो की रचना ईसा पूर्व मा०वी शती मे हुई होगी। महावीर के समय में भी व्याकरण रचे जाने का उल्लेख मिलता है । ऐसी परम्परा एव मान्यता है कि भगवान् महावीर ने इन्द्र के लिए एक शब्दानुशासन कहा। उसे उपाध्याय ने सुन कर लोक मे ऐन्द्र नाम से प्रकट किया। आवश्यकनियुक्ति तया हारिभद्रीय आवश्यक वृत्ति मे कही है। सक्को मा तत्समक्ख भगवत आसणे निवेसित्ता। सहस्स लक्खण पुच्छे वागरण अवयवा इद ।। डॉ० ए० सी० वर्नल ने ऐन्द्र व्याकरण सम्बन्धी चीनी, तिब्बतीय और भारतीय
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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