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आचार्य श्री कालगणी व्यक्तित्व एव कृतित्व २५
परीक्षा के क्षण और प्रोत्साहन
(१) शिक्षा का अगला चरण है परीक्षा । आचार्य शिष्यो को शिक्षा देता है और समय-समय पर उसकी परीक्षा भी लेता है। आचार्यश्री कालूगणी भी अनेक बार अपने शिष्यो की परीक्षा लेते थे। एक वार प्राय सभी सन्तो को सामत्रित कर कहा - 'असवारी' (पूरी पक्ति है राणाजी थारी देखण धो असवारी) यह रागिनी गाओ। ___मुनि कुन्दनमलजी, चौथमलजी, सोहनलाल जी, (चूरू) आदि सन्तो ने वह रागिनी गाई । पर आचार्यवर की दृष्टि मे वह ठीक नही गाई गई । आचार्यवर के निर्देशानुसार मैंने वह रागिनी गाई। मैंने कुछ दिन पहले ही आचार्यवर के पास बैठकर उस रागिनी को गाने का अभ्यास किया था। आचार्यवर ने कहा यह ठीक गाता है। परीक्षा मे मैं उत्तीर्ण हो गया।
(२) पिछली रात के समय हम अनेक साधु आचार्यवर की सन्निधि मे बैठे थे। व्याकरण का प्रसंग चल पडा। आचार्यवर ने कहा ५ठन के साथ-साथ मनन होना चाहिए। तुम लोग पढते हो, पर मनन कौन-कौन करते हो, यह बताओ। मनन के बिना व्याकरण व्याधिकरण बन जाता है। परीक्षा की मुद्रा मे आपने पूछा "कुमारीमिच्छति, कुमारी इव आचरति इति कुमारी ना" इसमे कौन-सी विभक्ति है ?
विद्यार्थी मुनि उलझन मे फम गए । कुमारी शब्द का तृतीया विभक्ति का रूप कुमार्या बनता है और यह 'कुमारीना' भी तृतीया विभक्ति जैसा प्रतीत होता है। क्या उत्तर दिया जाए।
मुझे सबोधित कर पूछा -मैंने उत्तर दिया यह प्रथमा विभक्ति है । ना पुरुषवाची पद है । कुमारी उसका विशेषण है । जो पुरुष कुमारी को चाहता है या उसके अनुरूप आचरण करता है, वह कुमारीना कहलाता है।
(३) आचार्यवर का सस्कृतज्ञ विद्वानो से काफी सपर्क था। वे विद्वान् आते और विद्यार्थी साधुओ की परीक्षा ले लेते । कभी-कभी दूसरे सप्रदाय के मुनि भी परीक्षा ले लिया करते थे।
स० १९८७ के भीनासर प्रवास की घटना है। पायचदिया गच्छ के श्री पूज्य