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२२ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा फाल्गुन वदी ६ को मध्याह्न मे आचार्यवर ने पुन. एक सोरठ। कहा
शिशु मुनिवर सुविसेख, क्रिया नित्य निर्मल करो।
रच न चूको रेख, देख-देख पगला धरो ।। यह पद्य उनकी ललित, प्रसन्न और मुदु शैली की काव्य-क्षमता की सूचना करते हैं। पर उक्त आशका ने उनकी क्षमता का उपयोग नहीं होने दिया।
आचार्यवर के जीवन की सध्या का समय चल रहा था। वे मालवा-यात्रा से लौटकर चित्तोड पचार। वहा वह प्राणघाती व्रण उ०। । आचार्यवर को कुछ
आन्तरिक आभास हो गया। उन्होने भक्तामर का पाठ शुरू किया। वे भक्तामर की एक हस्तलिखित प्रति अपने पास रखते थे। उस समय वह प्रति मुनि नथमल को दी हुई थी। उन्होने वह प्रति मगवाई और पाठ शुरू किया। वह पाठ प्रतिदिन चलता था । शारीरिक व मानसिक समस्या आने पर स्तुति-मनो के पा० का बहुत महत्त्व है । वे उसका महत्व जानते थे। उनका ज्ञान संघ मे सक्रात हुआ। आज वह अनेक दिशाओ मे प्रसार पा रहा है।
जयाचार्य के समय महासती गुलावाजी ने भगवती-सूत्र की जोड की हस्तलिपि की थी। कुछ समय बाद उसकी एक हस्तलिपि बड़े कालूजी स्वामी ने की । उसके वाद उसकी कोई हस्तलिपि नही हुई। वह विशाल अथ है। सा० हजार से अधिक उसके पद्य हैं। आचार्यवर के समय मे उसकी दो हस्तलिपिया हुईं। एक मुनि कुन्दनमलजी ने की और एक साध्वी खूमाजी ने। अन्य अनेक सावियो ने भी लिपि-कौशल का अद्भुत विकास किया। ___ मुनि कुन्दनमलजी का लिपि-कौशल बहुत चमत्कारी सिद्ध हुआ। स०१९७७ (भिवानी-चतुर्मास) मे उन्होंने एक पत्र लिखा । उसमे समूचा उत्तरा०ययन सूत्र और व्यवहार चूलिका लिखी हुई है। उस ..८'X४' ३-4 के पन्ने मे लगभग अस्सी हजार अक्षर है । जितना सूक्ष्म, उतना ही सुन्दर । लिपि-कौशल के इतिहास मे उसका अद्वितीय स्थान है। मुनि सोहनलालजी चूरू, मुनि अमीचन्दजी सुजानगढ, मुनि सोहनलालजी चाडवास आदि अनेक साधुओ ने ऐसी सुन्दर हस्तलिपिया की, जिन्हें देखकर कोई भी व्यक्ति आश्चर्यचकित हुए विना नही रह सकता।
सिलाई, पात्र की रगाई, रजोहरण आदि के निर्माण मे भी कला का इतना विकास हुआ कि उनकी कलात्मकता सहज ही आकर्षण का हेतु वन गई।