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४४४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
साहित्य, विविध शास्त्र तथा विविध कलाओ का वर्णन करते हुए तत्सम्बद्ध शब्दावली का भरपूर उपयोग किया है । यहा कुछ शब्द प्रस्तुत है।
१ समवसरण सम्बन्धी शब्द समवस्थान (१।४६), प्राकार (२।१३५), गोपुर (२।१३६), अष्टमगल (२।१३७), स्फटिकभित्ति (२।१३८), द्वादश विभाग (२।१३८), प्रादक्षिण्य पथ (२।१३८), निम्रन्थ (२।१३६), गणनाथ (२।१३६), इन्द्रपत्नी (२।१३६), कल्पवासिसुराङ्गना (२।१३६), आर्यिकासघ (२।१४०), गणपाली (२।१४०), द्योतिपा योणित (२।१४०), क्यन्तरी (२।१४०), भावनस्त्री (२।१४१), धोतिषा गण (२।१४१), व्यन्तर (२।१४१), भावनसंघ (२११४१), कल्पवासी (२।१४२), मानुष (२।१४२), तिर्यञ्च (२११४२), अशोकपादप (२११५१), यक्षराज (२।१५२), चामर (२।१५२), गतित्रय (२।१५३) तथा समवसरण (१२२१७२) मादि ।
२ जिनेन्द्रमन्दिर-सम्बन्धी शब्द रत्नवातायन (२८।८६), मुक्ताजालक (२८1८६), शातकोभमहास्त+मसहस्र (२८।८६), नानारूपसमाकीर्ण (२८।६०), भे गसमप्रभ (२८।६०), वजवनमहापी० (२८।६०), जिनाधिप (२८९४), नित्यालकृतपूजित (३१।२२४), चन्द्रनाम्मोऽनुलिप्तक्ष्म (३११२२४), निद्वार (३१।२२४), तुगतारण (३१।२२४), दर्पणादिविभूष (३१।२२५), मणिपीठ (३१।२२८), जिनविम्ब (३१।२३०), चैत्य (४०।२७), महावष्ट भसुस्तम्भ (४०।२८), युक्तविस्तारतुरता (४०।२८), गवाक्ष (४०।२८), हर्य (४०।२८), वलभी (४०।२८), तोरण (४०।२६, ११२।४६), महाद्वार (४०।२९); शाला (४०।२६), परिखा (४०।२६), सितचापताका (४०।२६), बृहद्घण्टा (४०।२६), सगीत (४०।३०), महोत्सव (४०।३१), जिनप्रासादपक्ति (४०।३१), जिनेन्द्राणा पचवर्णा प्रतिमा (४०।३२), शासनदेवत (६७।१२), कृताभिपवपूजन (६७।१३), निसन्ध्यवदना (६७।१७), विविधाश्चर्य (६७।१७), चितपुष्पोपशोभित (६७।१७), महाध्वज विराजित (६७।१८), हेमप्यादिति (६७।१६) जावूनदमय (११२।४४), भानुकूटप्रतिम (११२-४४), अशेषोत्तमरत्नीधभूपित (११२।४५), मुक्तादामसहस्राढ्य (११२।४५), बुद्बुदादर्शशीमित(११२।४५), किंकिणीपट्टलवूषप्रकीर्णकविराजित (११२।४६), उत्तुगगोपुर (११२।४६), प्राकार (११२१४६), नानावर्णपलकेतु (११२।४७), काचनस्तम्भ (११२।४७) तया प्रासादालीसमावृत (६६।२) आदि।
३ जिनपूजा-सम्बन्धी शब्द अभिषेक (६६।४), वादित (६६।४), माल्य (६६।४), धूप (६९।४, १०।८६), वलि (६६।४), उपहार (६६।४), सद्वर्ण __अनुलेपन (६६।४), पूजा (६६।५), विविध प्रणाम (६९।७), पर्यकार्धनियुक्ता।