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३७२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
अभिधानो का ही परिचय मान दिया गया है। यथास्थान शब्दो के लिंग, वचन आदि का भी निर्देश किया गया है । कोशगत सभी सामग्री प्रामाणिकता की दृष्टि से यथोचित सचित की गयी है । यही इस कोश की विशेषता है।
पाइअ-सह-महण्णवो
___ "पाइअ-सद्द-महण्णवो" या "प्राकृत-शब्द-महार्णव" के कर्ता कलकत्ताविश्वविद्यालय के सस्कृत, प्राकृत और गुजराती भापा के अध्यापक पण्डित हरगोविन्ददास निकमचद्र सेठ थे । अकेले ही पण्डित जी ने बिना किसी की सहायता के लगभग चौदह वर्षो तक कठोर श्रम करके इस प्रामाणिक कोश का सम्पादन किया। इसमे कोई सन्देह नहीं है कि जैन एवं जनेतर प्राकृत ग्रन्यो से लेकर अपभ्रंश तक के प्राकृत भाषाओ के विस्तीर्ण शब्दो के विशाल संग्रह का सकलन कर संस्कृत प्रतिशब्द, हिन्दी अर्य तथा सभी आवश्यक उद्धरणो तथा प्रामाणिक सामग्री से भरपूर कर इस शब्दकोश को सम्पादित किया । एक अकेले व्यक्ति का यह महान कार्य आश्चर्यकारी है । 'अभिधान राजेन्द्र' के सम्बन्ध मे उनका कथन है "अभिधान राजेन्द्र कोश का निर्माण केवल पचहत्तर से भी कम प्राकृत जन पुस्तको के ही, जिनमे अर्धमागधी के दर्शन विषयक ग्रन्थो की बहुलता है, आधार पर किया गया है और प्राकृत की ही इतर मुख्य शाखाओ के तथा विभिन्न विषयो के अनेक जन तथा जनेत र ग्रन्यो मे से एक का उपयोग नहीं किया गया है । इससे यह कोश व्यापकन होकर प्राकृत भाषा का भी एकदेशीय कोश हुआ है। इसके सिवाय प्राकृत तथा संस्कृत ग्रन्थो के विस्तृत अशो को और कही-कही छोटे-बडे सम्पूर्ण ग्रन्थ को ही अवतरण के रूप मे उद्धृत करने के कारण पृष्ठ संख्या मे बहुत बडा होने पर भी शब्द-संख्या मे ऊन ही नहीं, बल्कि आधारभूत ग्रन्थो मे आए हुए कई उपर्युक्त शब्दो को छोड देने से और विशेपार्थहीन अतिदीर्घ सामाजिक शब्दो की भरती से वास्तविक शब्द-संख्या में यह कोश अतिन्यून भी है।' ययार्य मे किसी भी शब्दकोश का महत्व व मूल्य शब्दो की सकलना मात्र से नही आका जा सकता । उसका सबसे महत्वपूर्ण अग है प्रमाणपूर्वक अर्थ का विनिश्चय कराना तथा सभी ज्ञातव्य तथ्यो का यथास्थान निर्देश करना। इस दृष्टि से "पाइस-सह-महणव" प्राकृत का श्रेष्ठ कोष है। इसकी श्रेष्ठता को ध्यान में रख कर ही सन् १९६३ मे इसका द्वितीय सस्करण 'प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी से प्रकाशित हुआ। यह सभी दृष्टियो से प्राकृत भाषा का एक अच्छा कोश कहा जा सकता है। किन्तु जिस समय सन् १९२८ मे इसका प्रथम सस्करण प्रकाशित हुआ था, उस समय तक बहुत कम प्राकृत-माहित्य प्रकाश में आ सका था। कई ग्रन्थो का विधिवत् सम्पादन तक नही हुआ था। अतएव प्राकृत की विशाल शव्द-सम्पदा अभी तक शब्दकोशो में निबद्ध होने से वचित है । यद्यपि