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सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३७१ दो दशको मे इस ओर जैन विद्वानो का बराबर लक्ष्य रहा है । अतएव श्री जिनेन्द्र वर्णीकृत ----'जनेन्द्रसिद्धान्तकोश' चार भागो मे भारतीय ज्ञानपी० से प्रकाशित हुआ और “जनलक्षणावली" कोश तीन भागो मे वीर-सेवा-मन्दिर, दिल्ली से प्रकाशित हो चुका है। अपनी-अपनी दृष्टि से इन सभी कोशो का महत्त्व है। किन्तु सभी प्रकार के प्राकृत के विशाल वाड्मय को प्रत्येक प्रकार के शब्दों के रूप मे सकलित व आकलित करने वाले विशालशब्द-सागर' की आज भी आवश्यकता बनी हुई है । सम्प्रति हमारी दृष्टि मे प्राकृत-शव्दकोश की दिशा मे दो प्रकार के प्रकाशनो का होना अत्यन्त अनिवार्य है। प्रथम 'अभिधान-राजेन्द्रकोश' पुन सुसम्पादित होकर प्रकाशित हो। द्वितीय एक ऐसे स्वतन्त्र कोश का निर्माण हो जो 'बृहत्हिन्दीकोश' की भाँति एक लाख से अधिक शब्दो का न अत्यन्त सक्षिप्त और न विस्तृत कोश हो । क्योकि भारी-भरकम कोश विद्याथियो, अध्येताओ तथा सामान्य शिक्षितो तक नही पहुँच पाते है। यह एक ऐसा बुनियादी कार्य है जिससे आगमो की सपी सेवा होगी।
पाइयसबुहि
'पाइयसबुहि' या 'प्राकृतशदाम्बुधि' के रचियता भी श्रीमद् विजयराजेन्द्र सूरि थे। इस ग्रन्थ का रचनाकाल १८९६ ई० है। १८६० ई० मे 'अभिधान-राजेन्द्र' का सम्पादन सकलन का सूत्रपात हुआ था। उसके लगभग नौ वर्षों के उपरान्त पाइय सहबुहि' का निर्माण हुआ। वास्तव मे यह शब्दकोश बृहत् 'अभिधान-राजेन्द्र' का ही लधु सस्करण है । हमारी जानकारी मे यह अद्यावधि अप्रकाशित है। जनशासन के धरोहरो को चाहिए कि वे अविलम्ब इसका सम्पादन करा कर प्रकाशन करायें, जिससे एक तपस्वी की प्राणवती आकाक्षा मूतिमान् हो सके । ग्रन्थ सम्मुख न होने से उसके सम्बन्ध मे कुछ नही कहा जा सकता। સદ્ધમાગધી-કોશ
T૦મુનિ રત્નનન્દ ની શતાવધાની મહારાગ નંનામો છે અને સ્વાધ્યાયી प्रखर विद्वान थे। उन्होने प्राकृत भाषा के हजारो शब्दो का सकलन कर 'अर्द्धमागधी-कोश' का निर्माण किया था। यह कोश विद्यार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ। किन्तु चार भागो मे विभक्त होने के कारण सामान्य अध्येताओ के लिए यह सुलभ नही था। अतएव इस दृष्टि से मुनिश्री ने एक सक्षिप्त कोश भी तैयार किया था जो सन् १९२६ मे "जनागम शब्दकोश के नाम से प्रकाशित हुआ। जहाँ 'अभिधान-राजेन्द्र' मे व्याकरण, रूप-रचना आदि सभी विषयो का समावेश हुआ है, वही 'अर्द्धमागधी-कोश' केवल प्राकृत-मस्कृत